
डाकू गब्बर सिंह की प्रतीकात्मक फोटो (सोर्स: जैमिनाई)
Sholay: सलीम साहब ने बताया की गब्बर नाम का डाकू 1950 के आसपास ग्वालियर में था, जिसका जबरदस्त आतंक था। वह लोगों के आंख फोड़कर, नाक कान-काट लेता था।
गब्बर के लिए डैनी का नाम तय था, मगर वे उन दिनों धर्मात्मा की शूटिंग के लिए अफगानिस्तान थे। उनकी डेट नहीं मिल पायी तो अमजद का नाम सलीम जावेद ने ही सुझाया। मगर उनके नाम तय होने और पहले शेड्यूल तक हर पल यही लगता की सिप्पी ने गलती कर दी, अमजद खान भी यही सोचते थे।
वास्तव में क्या हुआ पढ़िए- जब अमजद को शोले में रोल मिला उनके पिता जयंत (जकारिया खान) बहुत ज्यादा बीमार थे, उनके एक महीने पहले ही बेटा हुआ ऐसे में उन्हें छोड़कर बेंगलोर जाना पड़ा था। प्लेन मुंबई से उड़ते ही उसमें कुछ खराबी आ गयी, वापस उतरा लगभग 5 घंटे बाद वापस उड़ान भरने लगा तो केवल 5-6 यात्रियों को छोड़ सबने बैठने से मना कर दिया, अमजद ने हिम्मत दिखाई। उन्हें इस समय अपने पिता या बेटे से ज्यादा उनकी जगह डैनी नहीं ले ले इसकी चिंता थी। पहले शेडयूल की शुरुआत उस सीन से हुई, 'कितने आदमी थे!' थिएटर का कलाकार होते हुए भी अमजद से इस पूरे शेडयूल में ठीक से अभिनय नहीं हुआ। हाथों से जर्दा रगड़ना और संवाद में संतुलन नहीं बैठता। उस पर धर्मेंद्र, संजीव कुमार, हेमा मालिनी, जया भादूड़ी, अमिताभ, रमेश सिप्पी, जी पी सिप्पी जैसे बड़े लोगों के साथ काम करने का दवाब भारी पड़ा। पूरी यूनिट इतनी बड़ी फिल्म में अमजद को लेने की गलती मान चुके थे।
इसके बाद अमजद उस पुरानी फौज वाली ड्रेस में ही गब्बर बनकर रहने लगे और धीरे-धीरे सिप्पी का भरोसा और उनका यह डर की अब नहीं तो कभी नहीं, ने चमत्कार कर दिया, दूसरे शेडयूल में उनमें मानो गब्बर की आत्मा ही आ गयी और आगे तो इतिहास बन गया। शोले के बाद लोग प्राण की तरह अमजद खान के नाम से फिल्म देखने जाने लगे, उनके संवाद घर- घर में मशहूर हो गए। पहली बार एक विलेन को बिस्किट के विज्ञापन में लिया गया, उनके बोलने के साथ हंसने का अंदाज लुभा गया। अमजद खान ने 1991 रामगढ़ की शोले में यही किरदार वापस निभाया। उनके किरदार की या वर्दी की या अभिनय की कॉपी कई फिल्मों में की जिनमे श्रीदेवी, अमिताभ से लेकर काजोल, जानी लिवर कई अभिनेताओं ने उनके अंदाज की नकल की।
हिंदुस्तान में जब तक सिनेमा रहेगा तब तक शोले रहेगी और तब तक गब्बर रहेगा। ठाकुर बलदेव सिंह संजीव कुमार फिल्म इंडस्ट्री के महान एक्टर्स में से एक थे। उन्होंने फिल्मों से पहले नाटकों में 22 साल की उम्र में भी वृद्ध व्यक्ति के किरदार निभाए हर तरह के किरदारों में वो आत्मसात हो जाते थे। शुरुआत से ही वो छोटे-छोटे मगर महत्त्वपूर्ण किरदार निभाते थे, मगर उन्हें बड़ा नाम मिला 1968 मे 'राजा और रंक' से। और इसी साल दिलीप कुमार बलराज साहनी जयंत जैसे दिग्गजों को अपने अभिनय से टक्कर दी फिल्म संघर्ष में। अनामिका, मनचली जैसी एक आध मनोरंजक फिल्म छोड़ इन्हें ज्यादा नाम मिला अभिनय वाली फिल्मों से दस्तक, खिलौना, आंधी, नया दिन नई रात आदि या फिर किसी दूसरे नायक के साथ महत्त्वपूर्ण भूमिका में जैसे सत्यकाम, आपकी कसम, जीने की राह जिनमें इनका अभिनय साथी कलाकारों के अभिनय को नया आयाम देता। बलराज साहनी की जगह इन्होंने ले ली। सीता और गीता के ब्लॉकबस्टर होने पर रमेश सिप्पी ने बड़ी फिल्म की घोषणा की तो इसी फिल्म की टीम वापस लेनी थी। मगर ठाकुर के रोल के लिए दिलीप कुमार को लेना चाहते थे। उनकी मना करने पर संजीव कुमार का नाम पक्का हो गया। ठाकुर के रूप में संजीव कुमार ने नए आयाम खड़े कर दिए। नौकरी से रिटायर और हाथ कटने के बाद भी उनकी हिम्मत, जोश और जज्बा वही रहता है। उनकी संवाद बोलते समय उनके चेहरे के भाव देखने लायक हैं। जैसे वो दोहराते हैं मुझे गब्बर चाहिए वो भी जिन्दा, ये हाथ मुझे दे दे गब्बर, लोहा गरम है मार दो हथोड़ा, ये हाथ नहीं फांसी का फंदा है, ठाकुर ना झुक सकता है ना टूट सकता है, रामगढ़ वालों ने पागल कुत्तों के सामने रोटी डालना बंद कर दिया, सांप को हाथ से नहीं पैरो से कुचला जाता है और तेरे लिए मेरे पैर ही काफी है, ये देश तो युग-युग से किसानों का ही रहा, लेकिन जब-जब किसी जालिम ने हमला किया है, गंगा कसम हम किसानों ने अपनी दरातियां पिघलाकर तलवारें बनाई हैं। शोले के बेस्ट डायलॉग ठाकुर को ही मिले। इसीलिए धर्मेंद्र ये रोल करना चाहते थे। मगर उनकी वैल्यू कमर्शियल थी, इसलिए उनकी लिए वीरू ही सही था। दिलीप कुमार इस रोल को एक नया आयाम देते। मगर संजीव कुमार ने जो किया वो अद्भुत है।
Published on:
12 Aug 2025 08:02 pm
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