
Spiritual happiness is the key in life
चेन्नई।जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य महाश्रमण ने शनिवार को ‘ठाणं’ आगम के सूत्रों को व्याख्यायित करते हुए कहा कि आदमी संसार में भोग भोगता है। इन्द्रिय सुखों की पूर्ति के लिए आदमी कितना प्रयास करता है लेकिन यह सुख अल्पकालिक होता है जो कुछ क्षण सुख देने वाला और लंबे समय तक दु:ख देने वाला होता है। दुनिया में कोई और सुख है तो वह आध्यात्मिक सुख है। साधु को अपने जीवन में आध्यात्मिक सुख को आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए।
तेरापंथ के संस्थापक आचार्य भिक्षु भौतिक सुखों का त्याग कर आध्यात्मिक सुख की ओर आगे बढ़े। आज के दिन आचार्य भिक्षु ने अनशन में आत्मसमाधि की अवस्था में मृत्यु का वरण किया। उनका जीवन असाधारण और विशिष्ट था। उनके जीवन में वैराग्य भाव, वैदुष्य आदि का अवलोकन किया जा सकता है। उनमें उच्च कोटि की साधना थी।
उनका अभिनिष्क्रमण भी वैराग्य की भावना से ही हुआ था। आचार्य भिक्षु ने जिसे पैदा किया, पाला, पोसा आज उसी धर्मसंघ में हम साधना कर रहे हैं, मानों हम उनकी संतान हैं। गुरुदेव तुलसी ने लिखा कि आचार्य भिक्षु में आचार की ऊंचाई तो साधना की गहराई थी। उन्होंने इस दौरान ‘ज्योति का अवतार बाबा, ज्योति ले आया’ जैसे प्रासंगिक गीतों का भी आंशिक संगान किया। आचार्य भिक्षु को श्रद्धाजंलि देते हुए उन्होंने स्वरचित गीत ‘भिक्षु को वन्दन बारम्बार’ गीत का संगान किया।
इससे पहले साध्वीप्रमुखा के मंगल महामंत्रोच्चार से 216वें भिक्षु चरमोत्सव की शुरुआत हुई। तेरापंथ युवक परिषद व किशोर मंडल-चेन्नई ने सामूहिक रूप में गीत का संगान किया।
साध्वीप्रमुखा ने कहा कि आचार्य भिक्षु एक ऐसा नाम है जो कानों में जाते ही असीम आस्था पैदा करता है। वे एक क्रांतिकारी पुरुष थे। उन्होंने जीवन में कंटीला रास्ता अपनाया और ऐसी क्रांति की कि वह पथ फूलों का पथ बन गया। हम उनका आस्था के साथ वंदन करें और उनका जीवन हम सभी का पथ आलोकित करता रहे। मुख्यनियोजिका ने अपनी भावांजलि अर्पित करते हुए कहा कि आचार्य भिक्षु आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने राग-द्वेष को शांत करने की साधना की।
मुख्यमुनि ने कहा कि तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक भिक्षु के जीवन में मेरु-सी ऊंचाई और सागर-सी गहराई थी। कार्यक्रम के अंत में आचार्य सहित चतुर्विध धर्मसंघ ने संघगान किया। आचार्य के मंगलपाठ से कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
स्वार्थ का त्याग करना कठिन तपस्या
ताम्बरम स्थित जैन स्थानक में विरोजित साध्वी धर्मलता ने प्रवचन में कहा कि संत और स्वार्थ दो विपरीत दिशाएं हैं। स्वार्थ का त्याग करना एक कठिन तपस्या है पर कठिन तपस्या में तपने वाला ही संत होता है। संत स्वार्थ से ऊपर होता है। संत का जीवन दीपक की लौ के समान है जो स्वयं मिटकर जगत को प्रकाश बांटती है। संतों के सान्निध्य में पहुंचने वाला अपनी ज्ञान की झोली अवश्य भर लेता है। चंदन की तरह सभी को जिनशासन की महक प्रदान करने वाले संत ही होते हैं।
उन्होंने कहा, सुख-दुख, लाभ-अलाभ, जय-पराजय में समभाव रखना ही संत की समता है। संसार में तीन प्रकार के व्यक्ति होते हैं - स्वार्थी, आत्मार्थी और परमार्थी। स्वार्थी गधे को भी बाप बना लेते हैं तो आत्मार्थी स्वयं की आत्मा का चिंतन करता है जबकि परमार्थी स्व एवं पर के आत्मोत्थान का मार्ग प्रशस्त करता है।
Published on:
03 Oct 2018 09:41 pm
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