21 दिसंबर 2025,

रविवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

हल्दी लगाए कन्या पहाड़ में समाते ही उभर आईं अर्धकुवारी माता, अब होती है पिंडी की पूजा

पिंडी स्थल पर ही देवी मां की सिद्ध प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करा दी है। देवी मां के दरबार तक जाने के लिए करीब 300 से अधिक सीढ़ियों ने पहाड़ी रास्ते को सुगम बना दिया है।

2 min read
Google source verification
ardhkunwari mata

अर्धकुवारी माता

सैकड़ों वर्ष पहले देवी मां की कठोर साधक एक कन्या हल्दी चढ़ाए पहाड़ पर पहुंची और देवी मां ने उसे अपनी गोद में स्थान देकर पहाड़ में विलीन कर दिया। उसी सिद्ध स्थान से देवी मां की एक पिंडी उभरी जिसे वर्षों से माता अर्धकुवारी के रूप में पूजकर लोग मनौती मांगते आए हैं। जिला मुख्यालय छतरपुर से 55 किमी दूर हरपालपुर कस्बे में सैकड़ों फीट ऊंचे पहाड़ पर जहां माता की सूक्ष्म पिंडी उभरी उसी स्थान पर देवी भक्तों ने एक भव्य मंदिर का निर्माण कराके पिंडी स्थल पर ही देवी मां की सिद्ध प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा करा दी है। देवी मां के दरबार तक जाने के लिए करीब 300 से अधिक सीढ़ियों ने पहाड़ी रास्ते को सुगम बना दिया है।

अष्टमी को लगती है अर्जी

ऐसी मान्यता है कि नवरात्र की अष्टमी की आधी रात में इस सिद्ध साधना स्थल पर देवी मां की जो विशेष आराधना की जाती है, तब यहां जो भी मनौती मांगी जाती है उसे मां पूरा कर देती हैं। इसी आस्था और विश्वास को लेकर अष्टमी की रात में यहां बड़ी संख्या में देवी भक्त आकर मां के चरणों में अपनी अर्जी लगाते हैं। यह परंपरा कई सालों से सतत रूप से चली आ रही है। दूर-दराज से श्रद्धालु आते हैं और माता के दरबार में अपनी अर्जी डालते हैं। माता के दरबार जब लगता है तो रात्रि के समय बहुत भीड़ हो जाती है। हर कोई माता अर्धकुवारी का दरबार देखने के लिये रात के समय ही पहुंच जाता है। अष्टमी के दिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु माता के मंदिर में पहुंचते हैं। यह भौतिक नहीं, बल्कि लोक से परे आलौकिक रूप है।

ये है मान्यता

देवीभक्त सुनील रिछरिया व अन्य देवी भक्त बताते हैं कि सैकड़ों वर्षों पूर्व एक छोटे से गांव के निर्धन परिवार की कन्या दुर्गा मां की कठिन साधक थी। संयोगवश दो जगह उसकी शादी की बात चली और दोनों जगहों से एक साथ, एक ही दिन दो बारातें उसे ब्याहने आ गईं। कन्या से विवाह किसका होगा इस बात पर लाठियां तन गईं। खूनी संघर्ष न हो इससे घबराकर शरीर में हल्दी लगाए कन्या किसी बहाने से पहाड़ पर पहुंची, वहां सच्चे मन से देवी मां को याद किया तो पहाड़ में दरार हो गई और कन्या उसमें समा गई। जब तक लोग उसे खोजते हुए पहाड़ पर बने हल्दी के पगचिन्हों के सहारे उस स्थान पर पहुंचे तो उन्हें वहां हल्दी चिन्हों के बीच एक सूक्ष्म पिंडी उभरी दिखाई दी। इसे देवी मां का आशीर्वाद मानकर सभी के मस्तक श्रद्धा से झुक गए। तभी से यहां मां अर्धकुवारी को पूजा जाने लगा। पहाड़ पर आज भी हल्दी वाले पगचिन्ह उभरे हैं जो पूजे जाते हैं। अब इस स्थान की ख्याति इतनी बढ़ गई है कि नवरात्र की अष्टमी को यहां दूर-दूर से श्रद्धालु माता के दर्शनार्थ पहुंचते हैं।

सुबह चार बजे होती है अर्धकुवारी की आरती

सुबह तीन बजे से ही मंदिर जाने के लिए श्रद्धालुओं का तांता लग जाता है। माता अर्धकुवारी का मंदिर पहाड़ पर ऊंचाई पर स्थित होने से माता रानी के मंदिर का मनोरम दृश्य भक्तों को खींचकर लाता है। पहाड़ से इतनी अधिक ऊंचाई से नीचे का नजारा देखने का अलग ही दृश्य होता है। नवरात्र एक ऐसी नदी है जो भक्ति और शक्ति के तत्वों के बीच बहती है। सनातन हिन्दू धर्म में नवरात्र की प्रासंगिकता स्वयं सिद्ध है।