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आज भी इस मेला स्थल पर घास तक नहीं उगती… जानें क्यों

जिले में खास महत्व रखता है एक सदी से पुराना कालीरात का मेला

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कालीरात का मेला

छिंदवाड़ा . जिला मुख्यालय से 12 किमी दूर भरने वाले ऐतिहासिक कालीरात का मेला पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ जनआस्था का केंद्र बना हुआ है। मेला प्रबंधकारिणी समिति के समस्त पदाधिकारी व सदस्य इस विलुप्त होते उत्सव को पुनर्जीवित कर इसे नया स्वरूप देने मे जुटे हुए हैं। ज्ञात हो कि लगभग 150 पूर्ण करने वाले इस मेले के साथ अनेक धार्मिक घटनाए, कहानी एवं किवदंतिया भी जुडी हुई है जिसके परिणामस्वरूप इस मेले का महत्व बना हुआ है।
ग्राम जैतपुर में प्राचीन मंदिर है जहां कालीरात का मेला लगता है बताया जाता है कि यह मेला एक सदी पुराना है। इस मेले को लेकर भी लोगों में अनेक किवंदतियां है।
जिले में लगने वाले हर मेले की अपनी एक परम्परा और कहानी है। कुलबहरा नदी के किनारे लगने वाले इस मेले की भूमि पर आज भी घास का एक तिनका भी नहीं उगता। बुजुर्गाे का कहना है कि यहां पहले खेत था और फसलें लहलहाती थी ग्राम के पटेल परिवार यहां खेती करता था।

ऐसा माना जाता हे कि करीब एक सदी पूर्व जब यहां के पटेल परिवार के पूर्वज खेत पर हल चला रहे थे उसी समय मधुमक्खियों ने हमला करना शुरू कर दिया। पटेल परिवार का कोई भी सदस्य जब भी खेती करने जाता यह मधुमक्खिया उनपर हमला कर देती। फिर एक दिन रात में पटेल परिवार की कुल देवी ने सपने में बताया कि अमावस्या की कालीरात में वे खेत में जाए और बताए गए स्थल पर खुदाई करें जहां पर माता की मूर्ति और उसकी स्थापना कर यहां पूजा करे। इसके बाद उस स्थल की खुदाई करने पर वास्तव में मूर्तियां मिली कार रात दाई का नाम दिया गया। और इसके बाद मेला लगाया गया जितनी जगह पर मेला लगा उसमें फिर कभी फसल नहीं उगी और आज भी इस भूमि पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता। जबकि जैतपुर कृषि के मामले में उन्नत गांव है। इस गांव के लोग कृषि पर ही आधारित है। मंदिर में आज भी वह पत्थर की मूर्ति स्थापित है जिसे जैतपुर और आसपास के गांवों के ग्रामीण ग्राम देवी के रूप में उसकी पूजा करते है।


यहां हर साल कार्तिक पूर्णिमा पर सप्ताहभर के लिए मेला लगता है। पहले यह मेला १५ दिनों तक चलता था और शुरुआती दौर में इस मेले का स्वरूप इतना भव्य था कि बर्तनों की दुकान से लेकर सोने-चांदी के जेवरातों की दुकाने लगती थी और यहां ग्रामीण खरीदी-बिक्री भी करते थे। इस मेले में सबसे ज्यादा सराफा व्यापारी ही आते थे लेकिन समय के साथ-साथ मेले का स्वरूप बदलता गया अब केवल परम्परा को बनाए रखने के लिए इस मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले का अस्तित्व बचाने के लिए अब सामाजिक संंगठन भी भी आगे आ रहे रहे है। वर्षों से बर्तन, कपड़ा सहित मनिहारी का सामान बेचने वाले यहां आज भी अपनी दुकानें लगाते है। सात दिनों तक यह मेला लगता है इस दौरान सामाजिक संगठन विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन करते है आस्था के साथ लोग जुड़ रहते है।


प्राचीन मंदिर
जैतपुर में कुलबहरा नदी के किनारे मेला स्थल पर ग्वाले का मंदिर भी है। इसकी रोचक और चमत्कारी कहानी है। बुजुर्गों ने बताया कि गांव का ही एक ग्वाला गाय चरा रहा था उसी समय उसकी एक गाय नदी में उतर गई और वापस नहीं आई ऐसे में ग्वाला भी नदी में उतर गया जब वह नदी में उतरा तो कहा जाता है कि पानी में उसे एक साधु बाबा मिले। साधु बाबा उसे और गहराई में ले गए जहां से उसकी गाय उसे वापस की और साथ ही सोना भी दिया। साधु ने ग्वाले से कहा और कसम दी कि इसके बारे में किसी से न कहे लेकिन ग्वाले ने उसकी कसम तोड़ दी जिसके बाद उसकी मौत हो गई। उसकी स्थल पर ही ग्वाले का भी एक मंदिर बना है।