
महाराज दशरथ के मृत शरीर को सुगंधित औषधीय द्रव में रख दिया गया था। उनका अंतिम संस्कार ननिहाल गए भरत शत्रुघ्न के आने के बाद ही संभव था। उन्हें दूत के द्वारा शीघ्र आने का संदेश भेज दिया गया था।
भारतीय परम्परा में व्यक्ति की मृत देह का दाह संस्कार करना पुत्र का दायित्व है। मनुष्य जिस पुत्र को अपने जीवन में सर्वाधिक प्रेम करता है, मृत्यु होते ही वही पुत्र उसके शरीर को अग्नि को सौंप देता है। शायद इसलिए कि अपनी संतान के प्रति उपजने वाले अति मोह को व्यक्ति कम कर सके। लेकिन मोह में घिरा व्यक्ति जीवन भर इस परम्परा को देखते रहने के बाद भी अपने मोह को त्याग नहीं पाता।
अयोध्या के राजकुल का सूर्य अस्त हो गया था, अब हर ओर पीड़ा थी, अश्रु थे और था भय! नियति के हाथ का खिलौना बनी कैकई नहीं देख पा रही थीं, पर उनके अतिरिक्त हर व्यक्ति जानता था कि राज्य में मचे इस घमासान से सबसे अधिक दुख भरत को होगा। सभी यह सोच कर भयभीत थे कि भरत के आने पर क्या होगा?
धराधाम से जब कोई प्रभावशाली सज्जन व्यक्ति प्रस्थान करता है तो, कुछ दिन तक वहां के वातावरण में शोक पसरा रहता है। समूची प्रकृति ही उदास सी दिखने लगती है। भरत का रथ जब अयोध्या की सीमा में प्रवेश कर गया, तभी उन्हें अशुभ का आभास होने लगा। रथ जब अयोध्या नगर में आया तो, उन्हें स्पष्ट ज्ञात हो गया कि कुल में कुछ बहुत बुरा घट गया है। और रथ जब राजमहल के प्रांगण में पहुंचा तो, महल के ऊपर राष्ट्रध्वज की अनुपस्थिति सहज ही बता गई कि महाराज नहीं रहे।
पिता की अनुपस्थिति में बड़ा भाई पिता के समान हो जाता है। छोटे भाई उसी के कंधे पर सिर रख कर रो लेते हैं, उसी से लिपट कर अपना दुख बांट लेते हैं। 'पिता नहीं रहे' इस बात का आभास होते ही भरत और शत्रुघ्न को जिसकी सबसे पहले याद आई, वे श्रीराम थे। विह्वल होकर रथ से कूद घर की ओर दौड़ते दोनों युवकों के मुख से एक साथ निकला- भइया...'
कैकई को भरत शत्रुघ्न के आने की सूचना मिल गई थी। वे पहले से ही भरत की अगवानी को खड़ी थीं। घर में प्रवेश करते ही भरत ने माता को देखा तो रोते हुए लिपट गए। बिलख कर कहा, 'यह कैसे हो गया मां, पिताश्री तो पूर्ण स्वस्थ थे। फिर एकाएक...?'
कैकई देर तक भरत को गले लगाए रहीं। कुछ देर बाद जब भरत शांत हुए तो कहा, 'इस अशुभ में भी तुम्हारा शुभ छिपा है पुत्र! महाराज द्वारा छीने जा रहे तुम्हारे अधिकार को मैंने अपनी योजना से वापस ले लिया है। अब तुम अयोध्या के होने वाले महाराज हो। शोक न करो पुत्र! अब पिता का संस्कार करो और राज्य संभालो।'
'क्या? मेरा कौन सा अधिकार मां? भइया राम के चरणों में रह कर इस राज्य की सेवा करने को ही अपना अधिकार और कर्तव्य दोनों माना है मैंने। फिर मैं अयोध्या का राजा? क्या भइया भी...? हे ईश्वर! क्या अनर्थ हुआ है यहां...' भरत तड़प कर भूमि पर गिर गए।
कैकई ने कठोर शब्द में कहा, 'व्यर्थ प्रलाप न करो भरत! राम को कुछ नहीं हुआ। उन्हें महाराज ने चौदह वर्ष का वनवास दिया है, और तुम्हें अयोध्या का राज्य...'
भरत कैकई को एकटक निहारते रह गए, जैसे उनकी वाणी चली गई हो। कैकई ने प्रसन्न भाव से अपनी समूची योजना और महल में घटी घटनाओं को विस्तार से बताया। भरत कुछ नहीं बोल रहे थे, बस उनकी आंखें लगातार बरस रही थीं।
कैकई जब सब कह चुकीं तब भरत की तन्द्रा टूटी। कुछ पल तक माता का चेहरा निहारते रहने के बाद बोले- 'रे नीच! अभागन! इतना बड़ा पाप करने के बाद भी जी रही है, तुझे अपने जीवन पर लज्जा नहीं आती? मुझ निर्दोष को समस्त संसार के लिए अछूत बना देने वाली दुष्टा! जी करता है तेरा गला दबा कर मार दूं तुम्हें...' रोते भरत के दोनों हाथ कैकई के गले तक पहुंचते, तब तक किसी ने उनके दोनों हाथों को थाम लिया।
भरत ने देखा, वह माण्डवी थीं। रोती जनकसुता ने कहा, 'इस राजकुल में पाप की सीमाएं आपके आने के पूर्व ही लांघी जा चुकी हैं आर्य! आप इसे और आगे न बढ़ाएं... वे जैसी भी हों, आपकी मां हैं।'
क्रोधित भरत ने कहा, 'आप हट जाइये राजकुमारी! इस नीच का पुत्र होना ही मेरे जीवन का एकमात्र अपराध है। इसे मारकर ही मैं अपने अपराध का प्रायश्चित करूंगा।'
'रुकिए! हम दोनों ही भइया के अपराधी हैं, और हमारा प्रायश्चित भी उन्ही के चरणों में पहुँच कर होगा। लेकिन वे इस षड्यंत्र के लिए हमें क्षमा कर भी दें, तो मां पर हाथ उठाने के अपराध को क्षमा नहीं करेंगे। रुक जाइये!'
इतने देर में कोलाहल सुन कर उर्मिला और श्रुतिकीर्ति भी वहां आ गई थीं। भरत ने देखा, तीनों जनक कन्याएं हाथ जोड़े रोती हुई उनसे मूक याचना कर रही हैं। वे जहां थे, वहीं बैठ गए।
- क्रमश:
Published on:
03 Feb 2023 04:07 pm
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