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महाकुंभ के अंतिम रस्म की कहानी, जिसको निभाने के बाद साधु-संत होते हैं विदा

Akharas bid farewell to Kumbh after the ritual of Kadhi Pakora : महाकुंभ 2025 अब अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ चला है। बसंत पंचमी के पावन स्नान के बाद अखाड़ों ने प्रयागराज से विदाई की प्रक्रिया शुरू कर दी है। परंपरा के अनुसार, विदाई से पहले कढ़ी-पकौड़ी भोज का आयोजन किया गया जिसके बाद संतों और नागा सन्यासियों का प्रस्थान प्रारंभ हो गया।

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लखनऊ

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Manoj Vashisth

Feb 10, 2025

Maha Kumbh 2025 The Last Farewell Begins with Kadhi Pakora Ceremony

Maha Kumbh 2025 The Last Farewell Begins with Kadhi Pakora Ceremony

Kadhi Pakora Ceremony : प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ 2025 अब अपने अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ रहा है। बसंत पंचमी के पावन स्नान के बाद अखाड़ों ने प्रयागराज से विदाई की प्रक्रिया शुरू कर दी है। परंपरा के अनुसार, विदाई से पहले कढ़ी-पकौड़ी भोज का आयोजन किया गया, जिसके बाद संतों और नागा सन्यासियों का प्रस्थान प्रारंभ हो गया।

अखाड़ों की विदाई और कढ़ी-पकौड़ी भोज की रस्म Kadhi Pakora Ceremony

महाकुंभ में करीब एक महीने तक अखाड़े अपनी ध्वजा के साथ प्रवास करते हैं। लेकिन जब अमृत स्नान संपन्न हो जाता है, तो परंपरागत रूप से साधु-संत कढ़ी-पकौड़ी भोज ग्रहण कर महाकुंभ से प्रस्थान करते हैं। इस वर्ष, पंच निर्वाणी अखाड़े के लगभग 150 संत बसंत पंचमी के अगले ही दिन भोज कर प्रयागराज से रवाना हो गए। वहीं, जूना अखाड़ा के नागा संन्यासी 7 फरवरी को इस भोज के बाद प्रस्थान करेंगे।

क्या है कढ़ी-पकौड़ी रस्म? What is the ritual of Kadhi-Pakora?


संतों का मिलन: यह रस्म अखाड़ों के संतों के आपसी भाईचारे और समरसता को दर्शाती है। इसमें विभिन्न अखाड़ों के संत एकत्र होते हैं और सामूहिक रूप से कढ़ी-पकोड़े का प्रसाद ग्रहण करते हैं।

भोजन की पवित्रता: यह रस्म भोजन के शुद्ध और सात्त्विक होने का प्रतीक है। संतों के लिए परोसे जाने वाले कढ़ी-पकोड़े विशेष विधि से बनाए जाते हैं, जिनमें पूरी तरह से सात्त्विक और शुद्ध सामग्री का प्रयोग होता है।

धार्मिक मान्यता: ऐसा माना जाता है कि इस रस्म से संतों का आशीर्वाद मिलता है और कुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं को इसका लाभ प्राप्त होता है।

संतों की सहभोज परंपरा: कुंभ में अखाड़ों की परंपरागत रस्मों में यह रस्म संतों के सामूहिक भोजन का एक अहम हिस्सा होती है, जो उनकी एकता और आध्यात्मिक संगति को दर्शाता है।

महाकुंभ से अखाड़ों की रवानगी का पारंपरिक विधान

परंपरा के अनुसार, तीनों अमृत स्नान (मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी) समाप्त होने के बाद अखाड़े संगम तट पर अधिक समय तक नहीं ठहरते। माघ शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को अखाड़ों की औपचारिक विदाई होती है। इसके लिए विशेष धार्मिक विधियां संपन्न कराई जाती हैं:

इष्ट देव की स्थापना: धर्म ध्वजा के नीचे स्थापित इष्ट देव को पहले अंदर के कक्ष में ले जाया जाता है।

पूर्णाहुति हवन: इस अवसर पर अखाड़े के संत मिलकर पूर्णाहुति हवन करते हैं।

ध्वजा की रस्सी ढीली करने की परंपरा: हवन के बाद अखाड़े के साधु-संत धर्म ध्वजा की रस्सी को ढीला कर देते हैं, जो विदाई का प्रतीक है।

सूर्य प्रकाश का स्थानांतरण: अष्ट कौशल के संत अपने भाले (सूर्य प्रकाश) को लेकर पैदल अपने स्थायी कार्यालय जाते हैं।

अंतिम स्नान और भोजन: इसके बाद छावनी में आकर संत स्नान करते हैं, वस्त्र धारण करते हैं और कढ़ी-पकौड़ी भोज करके प्रयागराज से विदा हो जाते हैं।

अखाड़ों की विदाई और काशी प्रवास

महाकुंभ मेले की शान कहे जाने वाले 13 अखाड़े अब धीरे-धीरे प्रयागराज से प्रस्थान कर रहे हैं। नागा संन्यासियों और संप्रदायों में शामिल सन्यासी (शिव उपासक), बैरागी (राम-कृष्ण उपासक) और उदासीन (पंच देव उपासक) अखाड़े अपनी परंपरा के अनुसार काशी की ओर प्रस्थान करेंगे।

मसाने की होली का आयोजन

जूना अखाड़ा के अंतरराष्ट्रीय प्रवक्ता श्रीमहंत नारायण गिरि के अनुसार, संत महाशिवरात्रि तक काशी में प्रवास करेंगे। इस दौरान वे शोभा यात्रा निकालकर काशी विश्वनाथ के दर्शन करेंगे और फिर गंगा स्नान करने के बाद मसाने की होली खेलेंगे। इसके पश्चात, संत अपने-अपने मठों और आश्रमों की ओर लौट जाएंगे।

महाकुंभ का समापन 26 फरवरी को

हालांकि महाकुंभ का मेला 26 फरवरी को अंतिम स्नान के साथ समाप्त होगा, लेकिन अखाड़ों की विदाई के साथ ही मेले की आध्यात्मिक छटा धीरे-धीरे कम होती जा रही है। महाकुंभ में साधु-संतों, नागा संन्यासियों और अखाड़ों की उपस्थिति ही इस पावन पर्व की मुख्य विशेषता होती है, और अब जब वे प्रयागराज से प्रस्थान कर रहे हैं, तो महाकुंभ की आभा भी विदा होने लगी है।

Watch Video : कुंभ मेले का इतिहास और कहानी

महाकुंभ का यह परंपरागत क्रम अनादिकाल से चलता आ रहा है, जहां संत समाज धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कुंभ में शामिल होते हैं और कढ़ी-पकौड़ी भोज के बाद वापस अपने मठों की ओर प्रस्थान करते हैं। इस साल भी, इसी परंपरा का पालन करते हुए अखाड़ों ने प्रयागराज से विदाई ले ली है, लेकिन उनकी आध्यात्मिक उपस्थिति की गूंज आने वाले वर्षों तक बनी रहेगी।