
अगर आप साईं भक्त है और साईं चालीसा पड़ते समय करते हैं ये गलती तो सावधान!
अपनी शरण में आए भक्तों की मदद करने वाले शिरडी के साईं की पूजा भक्त विशेषकर गुरुवार के दिन ज्यादा करते हैं। भक्त साईं मंदिर में जाकर या अपने घर में ही साईं का स्मरण श्रद्धापूर्वक करके अपनी मनोकामना पूर्ति की कामना साईं से करते हैं। अगर आप गुरुवार के दिन साईं बाबा की स्तुति श्री साईं चालीसा का पाठ करते हैं और उस समय ऐसी गलती करते हैं तो आपसे साईं प्रसन्न नहीं नाराज हो सकते हैं।
जीवन भर मानव कल्याण के लिए कार्य करने वाले श्री दयालु साईं बाबा सदैव अपनी शरण में आये प्रिय भक्तों के हर छोटे बड़े कष्टों को एक चमत्कार की तरह तुरंत ही दूर कर देते हैं। कहा जाता है की जो कोई भी पूरी श्रद्धा और सबुरी के साथ साई बाबा का विधिवत आवाहन करके पूरी श्रद्धा के साथ अद्भुत चमत्कारी श्री साईं चालीसा का पाठ पूर्ण श्रद्धा के साथ करने के बजाय पाठ करते समय अगर मन में जरा सी भी शंका या किसी अन्य के प्रति बैर भाव रहता है तो साई नाराज हो जाते हैं। इसलिए साईं चालीसा का पाठ करते समय पूर्ण पवित्रता और दूसरों का भला हो इस भाव के साथ करें। ऐसा करने से प्रसन्न होकर साईंनाथ आपकी सभी मनोकामना शीघ्र पूरी कर देंगे।
।। अथ श्री साँई चालीसा ।।
श्री साँई के चरणों में, अपना शीश नवाऊं मैंकैसे शिरडी साँई आए, सारा हाल सुनाऊ मैं
कौन है माता, पिता कौन है, यह न किसी ने भी जाना।
कहां जन्म साँई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं।
कोई कहता साँई बाबा, पवन-पुत्र हनुमान हैं
कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानन हैं साँई।
कोई कहता गोकुल-मोहन, देवकी नन्द्न हैं साँई
शंकर समझ भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साँई की करते
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साँई हैं सच्चे भगवान।
बड़े दयालु, दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवनदान
कई बरस पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की शिरडी में, आई थी बारात
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुनदर।
आया, आकर वहीं बद गया, पावन शिरडी किया नगर
कई दिनों तक रहा भटकता, भिक्षा मांगी उसने दर-दर।
और दिखाई ऎसी लीला, जग में जो हो गई अमर
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साँई बाबा का गुणगान
दिगदिगन्त में लगा गूंजने, फिर तो साँई जी का नाम।
दीन मुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम
बाबा के चरणों जाकर, जो कहता मैं हूं निर्धन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते द:ख के बंधन
कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझ को संतान।
एवं अस्तु तब कहकर साँई, देते थे उसको वरदान
स्वयं दु:खी बाबा हो जाते, दीन-दुखी जन का लख हाल।
अंत:करन भी साँई का, सागर जैसा रहा विशाल
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान
लगा मनाने साँईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम ही मेरी पार करो
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया
दे दे मुझको पुत्र दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आश न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह आशीष
अल्ला भला करेगा तेरा, पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहे तुम पर उसकी, और तेरे उस बालक पर
अब तक नहीं किसी ने पाया, साँई की कृपा का पार।
पुत्र रतन दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार
तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार
मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास।
साँई जैसा प्रभु मिला है, इतनी की कम है क्या आद
मेरा भी दिन था इक ऎसा, मिलती नहीं मुझे थी रोटी।
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नि बरसाता था
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बिना भिखारी में दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था
ऐसे में इक मित्र मिला जो, परम भक्त साँई का था।
जंजालों से मुक्त, मगर इस, जगती में वह मुझसा था
बाबा के दर्शन के खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साँई जैसे दयामूर्ति के दर्शन को हो गए तैयार
पावन शिरडी नगर में जाकर, देखी मतवाली मूर्ति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, दु:ख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटे और विपदाओं का अंत हो गया
मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिंबित हो उठे जगत में, हम साँई की आभा से
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही सम्बल ले, मैं हंसता जाऊंगा जीवन में
साँई की लीला का मेरे, मन पर ऎसा असर हुआ
”काशीराम” बाबा का भक्त, इस शिरडी में रहता था।
मैं साँई का साँई मेरा, वह दुनिया से कहता था
सींकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदतंत्री थी, साँई की झनकारों में
स्तब्ध निशा थी, थे सोये, रजनी आंचल में चांद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ, को हाथ तिमिर के मारे
वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से काशी।
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था वह एकाकी
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसको, ही ध्वनि पड़ी सुनाई
लूट पीटकर उसे वहां से, कुटिल गये चम्पत हो।
आघातों से मर्माहत हो, उसने दी थी संज्ञा खो
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीं उसी हालत में ।।
कृपा करों हे साई नाथ, मैं शरण पड़ा तेरी ।
दुख हरों सब मेरे नाथ, नैया पार करों मेरी ।।
।। समाप्त ।।
Published on:
22 Apr 2020 02:38 pm
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