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धैर्य से बिखरने से बच जाते हैं परिवार, रामायण की यह कहानी दे रही सीख

Story of Urmila and Mandavi in Ramayana Ramayana Scene, Ramayan Story वसुधैव कुटुम्बुकम यह वाक्य, जिसका अर्थ है संम्पूर्ण विश्व एक बड़ा परिवार है। यहां हर व्यक्तिइस परिवार का एक सदस्य है, चाहे उसकी नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता या जातीयता कुछ भी हो। आज उर्मिला के इस आलेख के 28वें भाग हमें कुछ ऐसा ही संदेश देने जा रहा है।  

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Sanjana Kumar

Jun 02, 2023

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Story of Urmila and Mandavi in Ramayana Ramayana Scene, Ramayan Story: कहा जाता है कि यदि परिवार एक साथ हो, तो दुखों का पहाड़ भी किसी सदस्य का कुछ नहीं बिगाड़ पाता। मुश्किल घड़ी में परिवार का हर सदस्य एक-दूसरे का हाथ थामे चले, तो जीत परिवार के हर सदस्य की होती है, मुश्किलों की नहीं। वहीं नाते-रिश्तेदारों की संवेदनशीलता भी परिवार को हौसला देकर जीवन के हर संघर्ष से पार पाने में व्यक्ति की मदद करता है। वहीं नारी शक्ति परिवार की इस एकजुटता में सबसे बड़ी भूमिका अदा करती है।

हालांकि आज संयुक्त परिवारों की संख्या इतनी है कि आसानी से उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। वजह चाहे जो भी रहती हों। पर आज कई एकल परिवारों और रिश्ते-नातेदारों के साथ ही युवा पीढ़ी को लेकर आए दिन सुर्खियों में बने रहने वाले मामले हमें सबक भी सिखाते हैं कि संयुक्त परिवार, रिश्ते-नातेदार कैसे आज भी उतने ही महत्वपूर्ण और जरूरी हैं, जितने पहले थे। वहीं नारी शक्ति के रूप में एक महिला कैसे अपनी समझदारी से परिवार को बांधे रखती है। और मुश्किल हालात में परिवार के हर सदस्य का धैर्य बनाए रखती है। पत्रिका.कॉम के उर्मिला आलेख में पढ़ें संयुक्त परिवार कितने जरूरी साथ ही नारी शक्ति के कई रूप...

महाराज जनक भरत के साथ ही अयोध्या आ गए थे। सम्बन्धियों का कर्तव्य होता है कि विपरीत परिस्थितियों में सम्बन्धी का सहारा बनें। उन तक अपनी संवेदना, शुभकामना और भरोसा पहुचाएं। राजा जनक तो यूं भी धर्म और ज्ञान पर निरंतर चलते रहने वाले विमर्शों की प्राचीन परम्परा वाली मिथिला के राजा थे, वे इस विपरीत परिस्थिति में उस अयोध्या राजकुल को कैसे अकेला छोड़ देते जहां, उन्होंने अपनी प्राणप्रिय कन्याएं ब्याही थीं।

प्राचीन परम्परा के अनुसार बेटी का गांव उसके पिता के लिए तीर्थ समान होता है। वह श्रद्धा के कारण वहां का जल तक ग्रहण नहीं करता और वहां के पशु-पक्षियों तक को प्रणाम करता चलता है। राजा जनक भी यहां अधिक समय तक नहीं रह सकते थे। वे सबसे पहले मांडवी के पास गए और बड़े प्रेम से कहा, 'कुछ दिनों के लिए जनकपुर चलो पुत्री! अपनी माता के साथ रहोगी तो मन लग जाएगा।'

मांडवी ने शीश झुकाकर कहा, "इस दुर्दिन में मन को कहीं और लगाना अधर्म है तात! आत्मग्लानि के भारी बोझ तले दबे मेरे पति के लिए यह चौदह वर्ष कितने कठिन होंगे यह मैं जानती हूं। मुझे यहीं रहने दीजिए। इस परिवार की सेवा में अपना सर्वस्व खपा कर शायद मैं उनकी ग्लानि कुछ कम कर सकूं। मेरा तप ही उस दुखी मनुष्य का एकमात्र सम्बल है। मैं स्वप्न में भी अयोध्या नहीं छोड़ सकूंगी तात! जनकपुर तो अब चौदह वर्ष बाद ही आना होगा...'

महाराज जनक मन ही मन प्रसन्न हुए। उन्हें अपनी बेटियों से यही आशा थी। वे मांडवी से विदा लेकर उर्मिला के पास पहुंचे और उनसे भी वही आग्रह किया।

विवाह के बाद बेटियों का पिता से व्यवहार अत्यंत सहज हो जाता है। जो बच्चियां आदर के कारण पिता से अधिक बात नहीं करतीं, विवाह के बाद वे भी पिता से स्नेह पूर्वक झगड़ लेती हैं। कभी पिता के समक्ष शीश भी न उठाने वाली उर्मिला ने पिता के मुख पर दृष्टि गड़ाकर पूछा, 'यह क्या उचित होगा पिताश्री?'
राजा जनक सहसा कुछ बोल न सके। फिर धीरे से कहा, "चलो! माताओं के पास तनिक शांति मिलेगी। फिर चली आना।'

'मुझे अभी इसी अशांत परिवार में शांति ढूंढनी है पिताश्री! इस परिवार के अधिकांश व्यक्ति निर्दोष होने के बाद भी ग्लानि और अपराध बोध से भरे हुए हैं। माता कैकई और दीदी मांडवी उसी अपराध बोध के साथ घुट रही हैं। माता कौशल्या का जीवन तो यूं ही पीड़ा से भरा हुआ है। सदैव परिवार की सेवा में ही स्वयं को खपा देने वाली मेरी मां सुमित्रा अपने परिवार को टूटते देख कर अलग बिलख रही हैं और पुत्र के वनवास से अलग... इस परिवार के पास केवल अश्रु बचे हैं! इस अवसाद के अंधेरे से भरे कुटुंब में आशा का दीपक मुझे ही जलाना होगा पिताश्री। अभी यही मेरा परम कर्तव्य है।'

राजा जनक के लिए यह प्रसन्नता का ही विषय था। वे उर्मिला को आशीष देकर श्रुति कीर्ति के पास पहुंचे और कहा, 'तुम्हारी अन्य बहनों ने जनकपुर चलने से मना कर दिया पुत्री! उनका कहना ठीक भी है। वे परिवार में अपने पतियों के भी कर्तव्य को स्वयं ही पूरा कर रही हैं। पर तुम्हारे पति तो परिवार के साथ ही हैं न! तुम तो चल ही सकती हो। चलो जनकपुर! हमें भी संतोष मिलेगा।'

श्रुतिकीर्ति ने शीश झुका कर कहा, 'नहीं तात! यह सम्भव नहीं। मेरी बहनों के पति उनके साथ नहीं हैं यह केवल उनका ही नहीं इस पूरे कुटुंब का दुर्भाग्य है। यदि इस समय मेरी झोली में थोड़ा सा सौभाग्य बचा हुआ है तो क्या मेरा उस पर प्रसन्न होना और अपने सुखों का प्रदर्शन करना उचित होगा? मैं तो एक डेग चलते हुए भी सोचती हूं कि कहीं मेरे व्यवहार से उन्हें चोट न पहुंचे। यह विपत्ति हम सबकी साझी विपत्ति है, इससे निकलने के लिए हमें साझा प्रयत्न ही करना होगा। आप चलें, हम तो अब जनकपुर तभी आएंगे जब अयोध्या सुखी होगी...'

राजा जनक कुछ कह न सके। वे सबसे मिल कर जनकपुर के लिए निकल गए। राजमहल के प्रांगण से बाहर निकले तो, एक बार मुड़ कर पीछे देखा और श्रद्धा से प्रणाम कर लिया मंदिर को! मन ही मन कहा, "कोई भय नहीं! मेरी बेटियां अयोध्या को खंडित नहीं होने देंगी। अयोध्या चौदह क्या, चौदह करोड़ वर्ष बाद भी अपनी दिव्यता नहीं खो सकती..."

- क्रमश:

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