देव शयनी एकादशी वार – मंगलवार ,20 जुलाई 2021
एकादशी तिथि शुरू – 09:59 PM, 19 जुलाई
एकादशी तिथि समाप्त – 7:17 PM, 20 जुलाई
पारणा का समय: 05.17 AM से 09.15 AM तक
इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नही किया जाता। धार्मिक द्रष्टि से यह चार मास भगवान विष्णु का निद्रा काल माना जाता है। इन दिनों में तपस्वी भ्रमण नही करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तपस्या (चातुर्मास) करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन चार महीनों में भू-मण्डल (पृथ्वी) के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में इस एकादशी का विशेष माहात्म्य लिखा है। इस व्रत को करने से प्राणी की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं,सभी पाप नष्ट होते हैं और भगवान ह्रषीकेश प्रसन्न होते हैं।
सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा-आराधना की जाती है, परंतु आज की रात्रि से भगवान का शयन प्रारंभ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा की जाती है। इस दिन उपवास करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करके, उनके हाथों में शंख,चक्र, गदा, पद्म सुशोभित कर उन्हें पीताम्बर, पीत वस्त्रों व पीले दुपट्टे से सजाया जाता है।
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पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा कर आरती उतारी जाती है। भगवान को पान (पाम्बूल),सुपारी (पुंगीफल) अर्पित करने के बाद इस मंत्र से स्तुति की जाती है। मंत्र: ‘सुप्त त्वयि जगन्नाथ जमत्सुप्तं भवेदिदम्। विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्वं चराचरम्।।’ अर्थात हे जगन्नाथ जी!आपके निद्रित हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर सम्पूर्ण विश्व और चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं। इस प्रकार प्रार्थना करके भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए।देहशुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का, वंश व्रद्धि के लिए नियमित दूध का, कुरूक्षेत्रादि के समान फल मिलने के लिए बर्तन में भोजन करने के बजाय ‘पत्र ‘का और सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।
साथ ही चातुर्मास व्रतों में कुछ चीजें वर्जित भी हैं जैसे-पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और किसी अन्य का दिया दही-भात आदि का भोजन करना। इसके साथ ही इस दौरान मूली, परवल और बैगन आदि शाक खाना भी त्याग देना चाहिए।
मान्यता है कि जो कोई इस एकादशी को पूर्ण विधि-विधानपूर्वक,श्रद्धा व विश्वासपूर्वक भगवान का पूजन करते और व्रत रखते हैं, वे मोक्ष प्राप्त करते हैं।
देवशयनी एकादशी की कथा…
एक बार देवर्षि नारद जी ने ब्रह्मा जी से इस एकादशी के महात्म्य के बारे में पूछा। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें बताया कि…. ‘सतयुग में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुख और आनन्द से रहती थी। एक बार उनके राज्य में लगातार तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। प्रजा व्याकुल हो गई। इस दुर्भिक्ष से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिण्डदान, कथा, व्रत आदि सब में कमी हो गई। प्रजा ने राजा के दरबार में जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
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राजा ने कहा-‘ आप लोगों का कष्ट भारी है। मैं प्रजा की भलाई हेतु पूरा प्रयत्न करूंगा।’ राजा इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैने ऐसा कौन सा पाप कर्म किया है, जिसका दण्ड मुझे इस रूप में मिल रहा है?’ फिर प्रजा की दुहाई और कष्ट को सहन न कर पाने के कारण, इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए।
जंगल में विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्मा जी के तेजस्वी पुत्र अंगिरा ॠषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हे साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उन्हे आशीर्वाद देकर कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का अभिप्राय जानना चाहा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- ‘ महात्मन! सब प्रकार से धर्म का पालन करने करते हुए भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूं। मैं इसका कारण नही जानता। आखिर क्यों ऐसा हो रहा है, कृपया आप इसका समाधान कर मेरा संशय दूर कीजिए। ‘
यह सुनकर अंगिरा ॠषि ने कहा-‘ हे राजन! यह सतयुग सब युगों में श्रेष्ठ और उत्तम माना गया है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भारी फल मिलता है। इसमें लोग ब्रह्मा की उपासना करते हैं इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य किसी जाति को तप करने का अधिकार नही है, जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है।
यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नही हो रही है। जब तक उसकी जीवन लीला समाप्त नहीं होगी, तब तक यह दुर्भिक्ष शान्त नही होगा।’ परंतु राजा का ह्रदय उस निरपराध को मारने के लिए तैयार नही हुआ। राजा ने उस निरपराध तपस्वी को मारना उचित न जानकर ऋषि से अन्य उपाय पूछा।
राजा ने कहा- ‘ हे देव मैं उस निरपराध को मार दूं, यह बात मेरा मन स्वीकार नही कर रहा है।इसलिए कृपा करके आप कोई और उपाय बताएं। ‘ तब ऋषि ने कहा- ‘ आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी (पद्मा एकादशी या हरिशयनी एकादशी ) का विधिपूर्वक व्रत करो। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी। ‘ यह सुनकर राजा मान्धाता वापस लौट आया और उसने चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।