10 दिसंबर 2025,

बुधवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

स्वामी विवेकानन्द की विश्वधर्म की अवधारणा को समझना है जरूरी

भारत के युवा आज कई देशों में कार्य कर रहे हैं। कई धर्म-संप्रदायों की मान्यताओं को देख वे भ्रमित हो जाते हैं कि श्रेष्ठ धर्म कौनसा है?

2 min read
Google source verification

स्वामी विवेकानन्द की 'विश्वधर्म की अवधारणा' को समझने की आवश्यकता है। जनवरी, 1900 में कैलिफोर्निया में दिए भाषण में विवेकानन्द बताते हैं कि विश्व के प्रसिद्ध धर्मों की बात करें तो प्रत्येक धर्म में तीन भाग हैं- पहला दार्शनिक, इसमें धर्म के मूल तत्त्व, उद्देश्य और उसकी प्राप्ति के साधन निहित होते हैं।

दूसरा पौराणिक, इसमें मनुष्यों एवं आलौकिक पुरुषों के जीवन के उपाख्यान आदि होते हैं और तीसरा है आनुष्ठानिक, इसमें पूजा-पद्धति, अनुष्ठान, पुष्प, धूप, धूनी-प्रभूति आदि हैं। वे कहते हैं कि मैं ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूं, जो सभी मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो। इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहेंगे।

कर्मयोग है ईश्वर का आधार

राजयोग के विश्लेषण से ही एकत्व को प्राप्त किया जा सकता है। हमारे लिए ज्ञान लाभ का केवल एक ही उपाय है-एकाग्रता। यदि कोई भी किसी विषय को जानने की चेष्टा करता है, तो उसको एकाग्रता से ही काम लेना पड़ेगा। अर्थ का उपार्जन हो या भगवद् आराधना-जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह उतने ही अच्छा होगा। कर्मयोग का अर्थ है-कर्म से ईश्वर-लाभ। दु:खों और कष्टों का भय ही मनुष्यों के कर्म और उद्यम को नष्ट कर देता है। किसकी सहायता की जा रही है या किस कारण से सहायता की जा रही है, इत्यादि विषयों पर ध्यान न रखते हुए अनासक्त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए। कर्मयोग यही शिक्षा देता है।

धर्म है अनुभूति की वस्तु

भक्तियोग हमें नि:स्वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता है। किसी भी सुदूर स्वार्थभाव से, लोकैषणा, पुत्रैषणा, पितैषणा से नितांत रहित होकर केवल ईश्वर को या जो कुछ मंगलमय है, केवल उसी से कत्र्तव्य समझकर प्रेम करो। ज्ञानयोग मनुष्य से कहता है, तुम्हीं स्वरूपत: भगवान हो। यह मानव जाति को प्राणिजगत के बीच यथार्थ एकत्व दिखा देता है। हममें से प्रत्येक के भीतर से प्रभु ही इस जगत में प्रकाशित हो रहा है। वे कहते थे कि धर्म अनुभूति की वस्तु है। वह मुख की बात, मतवाद या युक्तिमूलक कल्पना मात्र नहीं है। चाहे वह जितना ही सुन्दर हो। समस्त मन-प्राण, विश्वास की वस्तु के साथ एक हो जाए। यही धर्म है।

- उमेश कुमार चौरसिया