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Rani Lakshmi Bai Jayanti 2019 : झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के ये है पांच मुख्य कारण

रानी का यदि 18 जून को बलिदान नहीं हुआ होता, तो शायद देश को आजादी के लिए नहीं करना पड़ता 90 साल तक इंतजार

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Rani Lakshmi Bai Jayanti 2019 : Rani laxmi bai five unknown facts

Rani Lakshmi Bai Jayanti 2019 : झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के ये है पांच मुख्य कारण

ग्वालियर। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की दीपशिखा कहलाने वाली झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से जमकर मुकाबला किया। उनकी वीरगाथा को अगर देखें तो अनेक ऐसे कारण उभरकर सामने आते हैं, जिनसे लगता है कि अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो अंग्रेजों के हाथों झांसी की रानी को मात नहीं खानी पड़ती। आज झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की जयंती है। ऐसे में हम उनसे जुड़ी कुछ बेहद जानकारी आपको बता रहे हैं जिनके बारे में आज तक आपने कहीं सुना और देखा नहीं होगा।

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नहीं करना पड़ता इंतजार
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणासी के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मर्णिकनिका जिन्हें प्यार से सब मनु कहते थे। उनका विवाह मई 1842 में मात्र 14 वर्ष की आयु में झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव नेवालकर से हुआ। वहीं अगर 18 जून 1958 को उनका बलिदान नहीं हुआ होता,तो शायद देश को आजादी के लिए 90 साल तक इंतजार नहीं करना पड़ता।

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रानी ने नहीं मानी हार
बताया जाता है कि 20 मार्च 1858 का वह काला दिन। इसी दिन अंग्रेजी सेनानायक जनरल ह्यूरोज ने फौज के साथ झांसी के किले को घेर लिया था। तीन दिन की घेराबंदी के बाद 23 मार्च को युद्ध शुरू हुआ। रानी लक्ष्मीबाई,उनकी सेना और जनता ने अंग्रेजी फौज का डटकर मुकाबला किया। हजारों लोग आहत और हताहत हुए। इसके बावजूद रानी ने हार नहीं मानी। दुर्भाग्यवश दूल्हाजू ने ओरछा द्वार खोल दिया था। जिससे अंग्रेजों ने नगर में मारकाट मचा दी। नगर युद्धस्थल में बदल गया। दस दिन तक मारकाट,आगजनी और लूटपाट होती रही। आखिरकार 4 अप्रैल को रानी किले से बाहर निकलीं और अपने विश्वस्त सिपाहियों के साथ कालपी की ओर कूच कर गईं।

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राजाओं ने नहीं दिया साथ
इतिहास के जानकार बताते हैं कि मराठा राजाओं ने अपने शासनकाल में आसपास की रियासतों से बलपूर्वक लगान की वसूली की। लगान वसूली में अनेक तरह के अत्याचार किए गए थे। उन्हें झांसी के किले में बंदी बनाकर यातनाएं दी गईं। उस वक्त की इसी नाराजगी के कारण आसपास के राजा भी जरूरत पडऩे पर रानी झांसी के साथ खड़े नहीं हुए।

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अंग्रेजों तक पहुंचाते थे सूचनाए
इतना ही नहीं दतिया राजघराने के करीबी रहे कुछ लोगों ने भी दो-तरफा खेल खेला। वे लोग एक तरफ तो रानी झांसी के विश्वासपात्र बने रहे और दूसरी तरफ अंग्रेजों के। ये लोग झांसी की रानी से जुड़ी सारी सूचनाएं लेकर अंग्रेजों तक पहुंचाते रहे। जिससे कहीं न कहीं झांसी की रानी को कमजोर करने की कोशिश भी की गई।

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अंग्रेजों की शरण में चले गए राजा
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में सभी सेनानायक ग्वालियर पहुंचे। तब ग्वालियर के राजा सिंधिया ने रानी झांसी की मदद करना मुनासिब नहीं समझा और वह अंग्रेजों की शरण में आगरा चले गए। इधर रानी झांसी ने ग्वालियर किले पर अधिकार कर लिया। जिसके बाद युद्ध और विकराल स्थिति में पहुंच गया था।

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और कर दिया खुद का बलिदान
17 जून 1858 को अंग्रेजों की एक बड़ी फौज ने ग्वालियर को घेर लिया। दोनों सेनाओं में घमासान हुआ। रानी लक्ष्मीबाई किले से बाहर निकली और आगे बढऩे लगीं। तभी अंग्रेजों ने उनका पीछा करना शुरू कर दिया। इस दौरान रानी का घोड़ा नया था और वह स्वर्ण रेखा नाला पार नहीं कर सका। रानी के चारों ओर फिरंगी सैनिक थे। इसी बीच सैनिकों ने रानी झांसी पर हमला कर दिया। इससे रानी अचेत हो गईं। इसी बीच रानी के सैनिकों ने अंग्रेजों की टुकड़ी का सफाया किया और रानी को लेकर सैनिक आगे बढ़ गए। वहां गंगादास की कुटी में रानी ने सैनिकों से अपनी चिता बनवाई और खुद अग्नि प्रज्ज्वलित करके खुद को बलिदान कर दिया।


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