
Rani Laxmibai: प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की वो कविता आज भी बच्चों से लेकर बड़ों और बुजुर्गों के मुंह से सुनाई दे जाएगी- ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’ रानी लक्ष्मी बाई के पराक्रम की कहानी सुनाती जोश से भरने वाली इस कविता ने रानी लक्ष्मीबाई के साथ ही कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की लेखनी को भी अमर कर दिया। बता दें कि 18 जून को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। रानी (jhansi ki rani) की वीरता, शौर्य और मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने के लिए हमेशा जाना जाता है। सरकार के पास कुछ दस्तावेज हैं, जो उनके बारे में जिज्ञासा पैदा करते हैं। उनमें से एक है लक्ष्मी बाई की शादी का कार्ड, जो अपने आप में बेहद दुर्लभ है। यहां हम आपको बता रहे हैं रानी लक्ष्मीबाई की शादी के कार्ड से लेकर शादी के बाद की ओरिजनल तस्वीर
मणिकर्णिका का विवाह झांसी के महाराज गंगाधऱ राव नेवलकर के साथ 1842 में हुआ, तब महाराज गंगाधऱ राव नेवलकर ने उनका नाम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई रखा था। 1851 में उनका एक पुत्र हुआ, जो पैदा होने के चार माह बाद ही खत्म हो गया। महाराज गंगाधर ने अपनी मृत्यु से एक दिन पहले अपने चचेरे भाई के लड़के आनंद राव को गोद ले लिया था, जिसका नाम दामोदर राव रखा था।
लक्ष्मी के पिता बिट्ठूर के पेशवा ऑफिस में काम करते थे और लक्ष्मी अपने पिता के साथ पेशवा के यहां जाती थी। पेशवा भी लक्ष्मी को अपनी बेटी जैसा ही मानते थे। बहुत सुंदर दिखने वाली यह लड़की बहुत चंचल भी थी। उसकी चंचलता के कारण ही पेशवा उसे छबीली कहकर पुकारने लगे थे।
मोरोपंत तांबे बिठूर के मराठा बाजीराव पेशवा के दरबार में नौकरी करते थे। मणिकर्णिका को वह सारी शिक्षाएं मिलीं जो उस दौर में महिलाओं को नहीं दी जाती थी। उनकी परवरिश एक बेटे की तरह की गई। उन्होंने घुड़सवारी, तलावारबाजी जैसे हुनर सीखे। यहां तक कि घर पर ही पढ़ना-लिखना सीखा। निशानेबाजी और मलखम्भ में भी उनका कोई सानी नहीं था।
रानी लक्ष्मीबाई 18 साल की कम उम्र में ही झांसी की शासिका बन गई थी। उनके हाथों में झांसी का साम्राज्य आ गया था। ब्रिटिश आर्मी के एक कैप्टन ह्यूरोज ने लक्ष्मी के साहस को देख उन्हें सुंदर और चतुर महिला कहा था। यह वही कैप्टन था, जिसकी तलवार से लक्ष्मी ने प्राण त्यागे थे। इतिहास के पन्नों में यह भी मिलता है कि ह्यूरोज ने इसके बाद रानी को ‘सेल्यूट’ भी किया था।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 में वराणसी के मराठी कराड़े ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागिरथी सप्रे था। लक्ष्मीबाई का मायके में नाम मणिकर्णिका तांबे था और उन्हें प्यार से मनु कह कर पुकारा जाता था। चार साल की उम्र में मनु की माता का देहांत हो गया था। इसके बाद उनका लालन-पालन पिता ने ही किया।
पति गंगाधर की मौत के बाद लक्ष्मी बाई राजकाज संभालने लगी थीं। उसी दौर में गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी की नीति के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी ने लक्ष्मीबाई के गोद लिए बालक को वारिस मानने से इनकार कर दिया। रानी ने अंग्रेजों की यह दलील मानने से इनकार कर दी। उन्हें दो टूक कह दिया कि मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। इसी बात से अंग्रेजों और रानी लक्ष्मीबाई के बीच युद्ध का ऐलान हो गया था। और रानी ने भी तलवार उठा ली थी।
युद्ध में रानी की मृत्यु के अलग-अलग मत भी मिलते हैं। लॉर्ड केनिंगकी रिपोर्ट सर्वाधिक विश्वसनीय मानी जाती है। ह्यूरोज की घेराबंदी और संस्साधनों की कमी के चलते रानी लक्ष्मीबाई घिर गई थीं। ह्यूरोज ने पत्र लिखकर रानी से एक बार फिर समर्पण करने को कहा था, लेकिन रानी अपने किले से निकलकर मैदान में उतर आई थीं। उनका इरादा दो तरफ से घेरने का था, लेकिन तात्या टोपे ने आने में देरी कर दी और रानी अकेली पड़ गई थी।
कैनिंग की रिपोर्ट के मुताबिक रानी को लड़ते हुए गोली लगी थी, जिसके बाद विश्वस्त सिपाहियों के साथ ग्वालियर शहर में मौजूद रामबाग तिराहे से नौगजा रोड पर आगे बढ़ते हुए स्वर्ण रेखा नदी की ओर आगे बढ़ीं। नदी के किनारे रानी का नया घोड़ा अड़ गया, रानी ने दूसरी बार नदी पार करने का प्रयास किया, लेकिन वह घोड़ा वहीं अड़ गया, वो आगे बढ़ने को तैयार नहीं था, अंतत गोली लगने से खून पहले ही बह रहा था और रानी वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़ी थीं।
यह भी उल्लेख मिलता है कि एक तलवार ने उसके सिर को एक आंख समेत अलग कर दिया और रानी शहीद हो गई थी। यह भी बताया जाता है कि शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि उनका शरीर अंग्रेजों के हाथ नहीं लगना चाहिए। इसके बाद बाबा गंगादास की शाला के साधु झांसी की पठान सेना की मदद से शाला में ले आए थे। वहां तत्काल उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। रानी की वीरता देख ह्यूरोज ने भी लक्ष्मीबाई की तारीफ की थी और उन्हें सेल्यूट किया था। बलिदान का यह दिन इतिहास के पन्नों में 17-18 जून का मिलता है। फिर भी इस बलिदान के आगे तारीखें कभी बढ़ी नहीं रही।
Updated on:
16 Jun 2024 10:42 am
Published on:
15 Jun 2024 03:17 pm
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