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सिंधिया रियासत में ऐसे किया जाता है दिवाली का सेलिब्रेशन, ऐसा चमकता है ग्वालियर

शहरवासियों के रहन-सहन और खुशियां मनाने के तरीकों से उसकी संस्कृति प्रदर्शित होती है

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scindia royal family celebrates diwali in gwalior

सिंधिया रियासत में ऐसे मनाई जाती है दिवाली, ऐसा चमकता है ग्वालियर

ग्वालियर। ग्वालियर देश और दुनिया में सिर्फ अपनी ऐतिहासिक इमारतों के लिए ही नहीं जाना जाता है। यहां के कल्चर और त्योहार भी देश में अहम स्थान रखते हैं। इनमें से एक था दशहरा सेलिब्रेशन और दूसरा है दिवाली का सेलिब्रेशन। जिसको देश में मैसूर,कुल्लू मनाली के समकक्ष ही माना जाता था। शहरवासियों के रहन-सहन और खुशियां मनाने के तरीकों से उसकी संस्कृति प्रदर्शित होती है। ग्वालियर भी ऐसा ही शहर है, लेकिन ये कई मायनों में दूसरों से अलग है। क्योंकि इस छोटे शहर में कई सारी संस्कृतियों का समागम होता रहा है।

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जो देश के अनूठे पर्व दशहरे और दिवाली में दिखाई देती है। जिसे यहां के शासकों के परिश्रय ने और भी अनूठा रूप दिया। जो आज भी कायम है। आजादी से पहले तक सिंधियाओं के शासन के वक्त दशहरे से दिवाली तक यह शहर दमकता था। दशहरे पर शहरभर में जूलूस निकलता था, तो दिवाली में राजा सभी को बुलाकर त्योहार की मुबारकबाद दिया करते थे।

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सिंधिया राजपरिवार से जुड़ा ये समारोह पूरे शहर में दर्शन का केंद्र होता था। इस दिन लोग सडक़ों पर अपने प्यारे महाराजा को देखने के लिए उमड़ते थे। जिसमें तत्कालीन महाराजा चांदी की बग्गी में सवार होकर निकलते थे। शाही पोशाक में उनके साथ राज परिवार के सदस्य और जागीरदार व सरदार साथ रहते थे। दशहरे का ये जूलूस जय विलास पैलेस से शुरू होता था और महाराज बाड़े तक पहुंचता था। इस दौरान राजा प्रजा का अभिवादन करते चलते थे।

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मनाते हैं त्योहा
1961 जीवाजी राव सिंधिया के समय तक यह पंरपरा यूं ही बनी रही। अब वैसी शान और शौकत तो सडक़ों पर नहीं दिखती, लेकिन मांढरे की माता मंदिर पर सिंधिया परिवार के ज्योतिरादित्य सिंधिया शमी के पेड़ के पत्ते को तलवार से काटकर योहार को मनाते हैं। इस दौरान शहर के गणमान्य लोगों सहित उनके राज्य से जुड़े रहे सरदारों के परिजन समारोह में शामिल होते हैं।

दिवाली पर होता था गेट टुगेदर
दिवाली के मौके पर सिंधिया शासक जय विलास पैलेस में गेट टुगेदर रखते थे। जहां उनके करीबियों सहित व्यापारी वर्ग के प्रतिष्ठित लोग शिरकत करते थे। और सभी त्योहार की खुशियां बांटते थे। तत्कालीन ढोलीबुआ महाराज कहते हैं कि उनके पिता बताते थे, उस वक्त शहर में खुशी का माहौल होता था। पैलेस को विशेष तरह से सजाया जाता था। दिए जलाए जाते थे। उन दिनों सडक़ों की रौनक भी देखते ही बनती थी। हमारे जमाने में उत्साह तो है। मगर चमक नहीं दिखती।