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दिल की सुनें या दिमाग की, आखिर क्यों होता दिमाग में ‘कैमिकल लोचा

शोध में दावा 2 ज्यादा चतुर लोग ढेर सारे विकल्पों की मौजूदगी में नहीं ले पाते सही निर्णय

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Santosh Trivedi

May 06, 2016

हम सबकी जिंदगी में रोजाना ही कुछ मसले ऐसे आते हैं, जब हमें पता नहीं चलता कि उन पर क्या फैसला लिया जाए। हमारा कौनसा निर्णय सही होगा। दिमाग जिसे सही मानता है दिल उसे खारिज कर देता है और इन सबमें हम कोई ऐसा फैसला कर लेते हैं जिसके बाद में हमें पछताना पड़ता है। सोचते हैं कि काश उस समय दिमाग की मान ली होती या काश दिल की सुन लेते। वैज्ञानिकों की मानें तो इन सब जद्दोजहद के लिए असल में हम नहीं बल्कि हमारे पास मौजूद ढेर सारे विकल्प पूरी तरह से जिम्मेद्दार हैं, जो दिमाग के अंदर परस्पर विरोधाभास पैदा करते हैं।

तर्कहीन जानते हुए भी कर लेते हैं फैसला

जब हमारे पास सिर्फ दो विकल्प हों तो हम ज्यादा अच्छा निर्णय लेते हैं बजाए ढेरों विकल्प के। इसलिए आगे से कभी भी यह मत सोचिए की आपको कई चीजों में से किसी एक को चुनने का मौका मिले। क्योंकि ऐसे में आप अक्सर गलत ही फैसला करेंगे। व्यवहार पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हम दिल में जानते हैं कि हम तर्कहीन फैसला ले रहे हैं, फिर भी हम उसे चुनते हैं।

एक ही पैमाने पर तौलते हैं

एक-दूसरे से पूर्णतया भिन्न विकल्पों को एक ही पैमाने पर परखते हैं और उसमें से किसी एक को चुनते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह का निर्णय पारंपरिक निर्णय सिद्धांत का उल्लंघन है और मानव संसाधन की क्षमता का पूरी तरह से दुरुपयोग है, जिसे मूर्खता की संज्ञा भी दी जाती है।

कई विश्वविद्यालयों के शोधकर्ता हुए शामिल

आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, ब्रिकबेक यूनिवर्सिटी लंदन और इजरायल की तेल अवीव यूनिवर्सिटी के व्यवहार शोधकर्ताओं ने मिलकर निर्णय लेने की क्षमता पर गहन अध्ययन किया। जब व्यक्ति के पास ए और बी ऑप्शन होता है तो वह यह बखूबी जानता है कि एक सही है और दूसरा गलत। लेकिन जैसे ही उसे ऑप्शन सी मिलता है उसका दिमाग भटकने लगता है। दिमाग में शोर होने लगता है। जिस तरह तेज संगीत के शोर में हम किसी चीज पर ध्यान नहीं लगा पाते, ठीक वैसे ही ज्यादा विकल्प उपलब्ध होने पर दिमाग भी समझ नहीं पाता।

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