
मानव शरीर एक ऐसी मशीन है, जिसका हर पुर्जा बेहद सटीक और सही समय पर काम करता है। ऐसा ही एक पुर्जा है नाक। आज नजर डालते हैं इसके कुछ रहस्यों पर...
मानव चेहरे में कई अहम चीजें हैं। जैसे दो कान, दो आंख, एक मुंह, एक नाक आदि। दो कान के पीछे यह तर्क है कि ध्वनि को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने में समय लगता है। इसलिए दो कान होने पर हम दो अलग-अलग दिशाओं की बातें एक साथ सुन पाते हैं और आवाज किस दिशा से आ रही है, यह पहचान पाते हैं। दो आंखों का फायदा यह है कि हम ज्यादा बड़े कैनवस में दृश्यों को एक साथ देख पाते हैं। पर क्या कभी यह सवाल आपके दिमाग में आया है कि हमारी नाक तो एक ही है, फिर उसमें दो-दो नासिका छिद्र क्यों होते हैं? जैसे चेहरे पर बाकी जितने अंग हैं, उसमें उतने ही छिद्र हैं। फिर नाक में भी सिर्फ एक ही छेद क्यों नहीं? आइए इस सवाल का जवाब तलाशते हैं विज्ञान में।
अलग गति में करते हैं काम
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में सूंघने की क्षमता और इस प्रक्रिया को समझने को लेकर एक अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि पूरे दिन में हमारे दोनों नासिका छिद्रों में से एक नासिका छिद्र दूसरे की तुलना में बेहतर और ज्यादा तेजी से सांस लेता है। प्रतिदिन या दिन में कभी भी दोनों नासिका छिद्रों की यह क्षमता बदलती रहती है। यानी हमेशा दो नासिका छिद्रों में से एक नासिका छिद्र बेहतर और एक थोड़ा कम सांस खींचता है और सांस खींचने की यह दो अलग-अलग क्षमताएं हमारे जीवन के लिए बेहद जरूरी हैं।
बेहद जरूरी हैं दो नासिका छिद्र
कुछ वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष की गंध को समझने की कोशिश की। एस्ट्रोनॉट्स ने अंतरिक्ष से वापस आकर अपने स्पेस सूट्स को सूंघा तो पाया कि उसमें जले हुए मीट या धातुओं के जलने जैसी गंध थी।
गंध और कणों को हमारी नाक की त्वचा अलग-अलग मात्रा में ग्रहण करती है। कुछ चीजों की गंध जहां तुरंत हमारी नाक से होते हुए मस्तिष्क तक जाती है, वहीं कुछ चीजों की गंध को बेहद धीरे-धीरे महसूस होती है। ऐसी महक को पहचानने के लिए हमें थोड़े समय की जरूरत होती है और ये गंध वह सीधे फेफड़े तक नहीं पहुंचाते। यानी हमारी नाक के यह दो नासिका छिद्र ही हैं, जो हमें ज्यादा से ज्यादा चीजों की गंध को समझने में मदद करते हैं। इन दो नासिका छिद्रों की वजह से ही आप नई गंधों को भी पहचान पाते हैं।
समझदार है नाक
आपकी नाक इतनी समझदार है कि यह आपको रोज-रोज की गंधों का एहसास देकर परेशान नहीं करती। इसे 'न्यूरल अडॉप्टेशन' (तंत्रिका अनुकूलन) कहते हैं। यानी हमारी नाक ऐसी गंधों के प्रति उदासीन हो जाती है, जिन्हें हम प्रतिदिन सूंघते हैं और वह उन गंधों की पहचान तुरंत कराती है, जो हमारे लिए नई होती है।
Published on:
23 Aug 2016 07:03 pm
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