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Chandra Shekhar Azad Death Anniversery: मां चाहती थीं बेटा बने संस्कृत का विद्वान, मगर बन गए आजादी के नायक

आजाद ( Azad ) की मां की दिली तमन्ना थी कि वो अपने बेटे को संस्कृत का शिक्षक बनाए इसलिए उन्हें पढ़ने के लिए बनारस के काशी विद्यापीठ ( Kashi Vidyapith ) भेज दिया था।

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Chandra Shekhar Azad

Chandra Shekhar Azad

नई दिल्ली। देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देने वाले महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ( Chandra Shekhar Azad Death Anniversery ) की पुण्यतिथि आज है। उन्होंने 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के एलफेड पार्क अंग्रेजों से लोहा लेते हुए खुद को गोली मार ली थी।

आजाद का नाम सुनते ही सबसे पहले मूंछों पर ताव देते हुए एक शानदार रौब वाले इंसान की यादें जेहन में ताजा हो जाती है। 1920 में 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर आजाद ( Chandra Shekhar Azad ) गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े। वे गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जहां उन्होंने अपना नाम 'आजाद', पिता का नाम 'स्वतंत्रता' और 'जेल' को अपना घर बताया। यह सुनकर जज ने आजाद को 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई। आजाद कम उम्र में भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए थे, उनकी मां आजाद को संस्कृत टीचर बनाना चाहती थी।

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इसलिए उनके पिता ने उनको बनारस के काशी विध्यापीठ भेज दिया था। उस वक्त जलियावाला कांड हो गया। जिसके बाद वो 1920 असहयोग आंदोलन ( Non Cooperation Movement ) से जुड़ गए। आजाद रामप्रसाद बिस्मिल के क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन ( HRA ) से जुड़े, यहां से उनकी जिंदगी बदल गई।

उन्होंने सरकारी खजाने को लूट कर देश की आजादी के लिए लड़ रहे क्रांतिकारियों के लिए धन जुटाना शुरू कर दिया। उनका मानना था कि यह धन भारतीयों का ही है जिसे अंग्रेजों ने लूटा है। रामप्रसाद बिस्मिल की अगुवाई में आजाद ने काकोरी षड्यंत्र ( Kakori conspiracy ) में सक्रिय भाग लिया था।

आजाद ने साल 1928 में लाहौर में ब्रिटिश अफसर एसपी सॉन्डर्स को गोली मारकर लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था। चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में सुखदेव और अपने एक अन्य और मित्र के साथ योजना बना रहे थे तभी अचानक अंग्रेज पुलिस ने उनपर हमला कर दिया।

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आजाद ने पुलिस पर ताबड़तोड़ गोलियां चलाईं जिससे कि सुखदेव वहां से बचकर निकल सके।वे सैकड़ों पुलिस वालों से अकेले ही जूझते रहे। उन्होंने संकल्प लिया था कि वे न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी। इसलिए अपने संकल्प को पूरा करने के लिए अपनी पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली और मातृभूमि के लिए प्राण बलिदान कर दिए।