
संस्कारों के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं हो सकती
हुब्बल्ली
सुप्रसिद्ध जैन संत विश्व प्रसिद्ध जहाज मंदिर के अधिष्ठाता खरतरगच्छ संघ के गच्छाधिपति आचार्य जिनमणिप्रभसूरीश्वर ने आज आर्यन पब्लिक स्कूल में छात्रों समेत विशाल सभा को संबोधित करते हुए कहा कि संस्कार जीवन की रीढ है । उसके अभाव में जीवन में संतुलन और सहजता का आनंद प्राप्त नहीं किया जा सकता।
उन्होंने कहा कि संस्कार वपन की उम्र बचपन है। बचपन के संस्कार ही जीवन भर साथ देते है। उन्होंने कहा कि जिसका बचपन बिगड गया समझो उसका पूरा जीवन स्वाहा हो गया। संस्कारी बचपन ठोस जीवन का निर्माण करता है।
उन्होंने कहा कि महाभारत के कथानक के अनुसार दुर्योधन बहुत ही उग्र, अविवेकी और स्वार्थी हो गया था। इसका मूल कारण बचपन में संस्कारों के सिंचन का अभाव था। बचपन को जिस प्रकार संवारा जाना चाहिए था उसे प्रेम के साथ साथ समझ देनी चाहिए थी। उसके स्थान पर बार बार वह प्रताडि़त होता गया, एक हीन भाव से भर गया, और यही हीन भाव उसके हृदय में एक प्रच्छन्न अहंकार जगा गया। परिणामस्वरूप वह न्याय और नीति की मर्यादा भूला बैठा। उसे संस्कारित करने के स्थान पर उसके हृदय में महत्वाकांक्षा के जहरीले बीज बोये गये, परिणाम स्वरूप वह सच्चाई से आंख मूंद कर जीया। युधिष्ठिर का अभ्यास भी उसी गुरुकुल में हुआ था। पर वह संस्कारों की छांव में जीया। इस कारण दु:ख में भी उसने अपने सत्य और धर्म का त्याग नहीं किया।
मुनिश्री ने कहा कि संस्कार अर्थात जीवन को नियंत्रित करने की कला है। अनुकूल परिस्थितियों में मनुष्य को दृढ संस्कार अपना आपा नहीं खोने देता तो विपरीत परिस्थितियों में यही संस्कार मनुष्य को धीरज देता है। संस्कारी व्यक्ति परमात्मा से यह नहीं मांगता कि मेरे कष्ट दूर कर दो। वह यह प्रार्थना करता है कि दु:ख में भी मैं संतुलित रह सकूं। परोपकार के कार्य कर सकूं। आपका स्मरण कर सकें। ऐसी शक्ति और ऐसा संतुलित मन हो परमात्मा मैं चाहता हॅंू।
उन्होंने कहा कि संस्कार दु:ख में भी जीना सिखाता है तो सुख में भी जीना सिखाता है। जिस व्यक्ति के हृदय में संस्कार हो वह दुख आने पर रोता नहीं है। वह उसे हॅंसते हॅंसते सहन करता है। और सुख आने पर इतराता नहीं है। वह सुख मिलने पर उसे बॉटने का पुरुषार्थ करता है।
आज भारत का बचपन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के बजाय रोजी रोटी का साधन जुटाने में लगा है। यह निश्चित रूप से चिंतनीय विषय है।
उन्होंने कहा कि बालक देश का भविष्य हैं। इन बालकों में से ही कोई विवेकानंद बनेगा और कोई रामकृष्ण परमहंस। कोई वैज्ञानिक बनेगा तो कोई आइएएस बन कर देश की सेवा करेगा।
उन्होंने बालकों से कहा कि कभी भी पढाई से अपना जी नहीं चुराना। माता पिता और देश की सेवा करने का संकल्प करना।
आचार्य ने अपने बचपन को याद करते हुए कहा कि विद्यालय हमारा पहला मंदिर है। जहाँ हमारे जीवन का निर्माण होता है। इसमें अध्यापकों का पूरा योगदान है। इसलिए विनय और विवेक की शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देना।
उन्होंने इस स्कूल की प्रशंसा करते हुए कहा कि समाज में जितनी जरूरत मंदिरों की है, उतनी ही जरूरत विद्यालयों की है। जहॉं हमें मात्र शिक्षा नहीं मिलती अपितु संस्कार भी मिलते हैं। उन्होंने विद्यालय की प्रगति की कामना की।
इस अवसर पर मुनि मुकुंद प्रभ सागर ने कन्नड भाषा में अपना प्रवचन देते हुए बालकों को संस्कारित होने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि अपने देश, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति पर सदा सदा गर्व का अनुभव करना।
साध्वी हर्षप्रज्ञा ने भी बालकों को संस्कारित होने पर जोर दिया। प्रवचन से पूर्व आचार्य आदि शिष्य मंडल एवं साध्वी गणिनी सूर्यप्रभा पूर्णप्रभा आदि साध्वी मंडल का विद्यालय परिवार की ओर से स्वागत किया गया।
संस्था के अध्यक्ष रमेश बाफना ने आचार्य का अभिनंदन करते हुए उनके संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किए।
कार्यदर्शी संदीप जैन ने विद्यालय की प्रगति के संबंध में बताया। सभा का संचालन विद्यालय की अध्यापिका सरोजा एकबोटे तथा दीपा गौरी ने किया। इस अवसर पर विद्यालय के बालकों ने भी अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर जैन मरुधर संघ हुबली, स्थानकवासी समाज हुबली, तेरापंथ सभा हुबली सहित राजस्थानी समाज हुबली के प्रतिनिधि उपस्थित थे।
इस अवसर पर प्रबंधन समिति के उपाध्यक्ष विक्रम जैन, कोषाध्यक्ष प्रवीण जैन, निदेशक गौतम बाफना, राकेश जैन, निखिल मेहता, मुकेश हिंगर, अभय पालरेचा, प्रधानाचार्य शिरीष सांस, स्कूल के स्टाफ सहित अन्य उपस्थित थे।
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Published on:
06 Apr 2024 07:41 pm
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