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अर्थ ही अनर्थ का मुख्य कारण है

अर्थ ही अनर्थ का मुख्य कारण है-जैनाचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहागोकाक

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अर्थ ही अनर्थ का मुख्य कारण है

अर्थ ही अनर्थ का मुख्य कारण है

गोकाक
शहर में श्री नेमिनाथ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ केआराधना भवन में धर्मसभा को संबोधित करते हुए जैनाचार्य विजय रत्नसेन सूरीश्वर ने कहा कि अर्थ ही सभी अनर्थों का मुख्य कारण है। अर्थ यानी पैसा पैसा आने के बाद व्यक्ति मात्र उसके संरक्षण और संवर्धन में मन, वचन और काया के अपार पाप कर्मों को उपार्जन करता है, जिसके फल स्वरूप वह नरक आदि गतियों में अपार दु:खो को ही सहन करता है।
उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे दिन बीतता है वैसे-वैसे आयु कम होती जाती है। ज्यों ज्यों दिन बीतते हैं; त्यो त्यों हम मरण के नजदीक जा रहे हैं परंतु मरण से निश्चित बने हमारे जीवन का लक्ष्य मात्र धनार्जन रह गया है।
आचार्य ने कहा कि पैसा कमाने के लिए व्यक्ति सभी प्रकार की माया प्रपंच करता है। पैसा पाने के लिए अन्याय-अनीति करते हुए व्यक्ति जरा भी हिचकिचाता नहीं है परंतु वास्तव में, पैसा अपने जीवन का साधन ही है। पैसों को साधन बनाने वाले अपने जीवन का सर्वस्व बर्बाद कर देते है। पैसे के लोभ में व्यक्ति मुक्ति को देने वाले भगवान के पास भी पैसों को पाने की ही प्रार्थना करता है। क्षणिक सुख प्रदान करने वाले साधनों की मांग की प्रार्थना करना सबसे बड़ी मूर्खता है।
उन्होंने कहा कि यदि परमात्मा के पास कुछ मांगना ही है तो भूल से भी संपत्ति मत मांगना क्योंकि यदि संपत्ति के साथ सत्यति नहीं है तो वह संपत्ति हमारा अधोपतन ही करेगी और समय यदि सम्मति है तो प्राप्त हुई संपत्ति भी वरदान बन सकती है। अत: एक परमात्मा के पास सन्मति की प्रार्थना करनी चाहिए।
आचार्य ने कहा कि हमें प्राप्त हुआ मनुष्य जन्म अत्यंत ही दुर्लभ है। इस मनुष्य जन्म की सफलता और सार्थकता मात्र धर्म की आराधना में ही है। अंधा व्यक्ति यदि खड्डे में गिर जाता है, तो लोग उसकी दया करते हैं, परंतु जो देख सकता है वह यदि खड्डे में गिरता है तो लोग उसे मूर्ख कहते हैं। वैसे ही जिन्हें धर्म की प्राप्ति नहीं हुई है, वह अपने जीवन को व्यर्थ गवाँ दे, वह तो दया का पात्र है परंतु जिसे सच्चे धर्म की प्राप्ति हुई है वह अपने मनुष्य जीवन को व्यर्थ गवाँ दे, वह मूर्ख माना जाता है। मात्र धनार्जन के पीछे अपने जीवने गवाँ देने की मुर्खता हमे नहीं करनी चाहिए।