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पृथ्वी की रक्षा के लिए एक अच्छी आदत डालें

पृथ्वी की रक्षा के लिए एक अच्छी आदत डालें

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इंदौर द्य अपनी स्वार्थसिद्धि के वशीभूत हमने हमारी धरती पर जो तबाही मचाई है, वह अकल्पनीय है। उसी तबाही के भयंकर परिणाम हमारे सामने हैं। पेड़ों के साथ पानी को लूटने में हमने जरा भी कोताही नहीं की। इनका इतना सफाया किया कि धरती पर संकट के बादल घिर आए हैं। पेड़ भूमि को ठंडा रखने का काम करते हैं। ये पृथ्वी के एयर कंडीशनर हैं। पेड़ जहरीली कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर प्राण वायु ऑक्सीजन देते हैं। ये जमीन से पानी को वायुमंडल में पहुंचाते हैं।
वनों के सफाए का ही दुष्परिणाम है कि धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। मौसम का चक्र पूरी तरह गड़बड़ा गया है। किसी समय पूरे चार महीने बरसने वाला पानी दो महीने से कम में सिमट कर रह गया है। जहां सर्दी पडऩा चाहिए, वहां 34-36 डिग्री तापमान जा रहा है। गर्मी वाले स्थानों पर कंपकंपाने वाली ठंड गिरने लगी है। जिन स्थानों पर नाम मात्र की बारिश होती थी, उन स्थानों पर नदियों में आने वाली बाढ़ तबाही मचाने लगी है। यह बिगड़ते पर्यावरण का ही नतीजा है कि फसलें खराब होने लगी है और उत्पादन काफी हद तक प्रभावित भी होने लगा है। साल दर साल हालात कठिन होते जा रहे हैं। कहीं नदी-नालों में आई बाढ़ तबाही मचा रही है तो कहीं पानी ही नहीं बरस रहा है। हमारे देश का बड़ा भूभाग इस बार सूखे की चपेट में है। मालवांचल में तो स्थिति बदतर हो गई है। इसके कई जिलों में भूजल स्तर खतरनाक बिन्दु तक जा पहुंचा है यानी स्थिति गंभीर है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस गर्मी में पीने के पानी के लिए मारामारी भी हो जाए।
वनों की बेरहमी से कटाई ने स्थिति को गंभीर बना दिया है। साथ ही नई टेक्नोलॉजी और जीवाश्म ईंधन के साथ कोयले के भरपूर उपयोग से पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा है। इनसे निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड को सोखने वाले पेड़-पौधों का अंधाधुंध खात्मा और वायुमंडल में ऐसी घातक गैसों का इक_ा होना भी इस बदलाव के मुख्य कारणों में शामिल है। हमारी रोजाना की खपत की 80 प्रतिशत ऊर्जा जीवाश्म ईंधन से पूरी हो रही है। इससे 30 प्रतिशत से अधिक कार्बन बढ़ गया है। वायुमंडल में दो गुना ऐसी गैसें हो गई हैं, जिनसे तापमान बढ़ता जा रहा है। इसके नतीजतन ध्रुवों के ग्लेशियर हर साल पिघल रहे हैं। हर वर्ष साढ़े चार किलोमीटर लंबा, साढ़े चार किलोमीटर चौड़ा और इतना ही ऊंचा ग्लेशियर का हिस्सा पिघल रहा है। हिमालय के ग्लेशियरों का क्षेत्रफल साल-दर-साल कम होता जा रहा है। बड़ी मात्रा में पिघल रही बर्फ के कारण गंगोत्री कई किलोमीटर पीछे खिसक गई है। गर्मियों में कंपकंपी ला देने वाली ठंड की जगह अब भीषण गर्मी ने ले ली है। अब तो यहां ठंड के दिनों में भी मौसम गर्म रहने लगा है।
22 अप्रैल को हम पृथ्वी दिवस मना रहे हैं। इस दिन हमारी इस जननी की रक्षा के लिए कोई न कोई ऐसी अच्छी आदत को दिनचर्या में शामिल कर लें, जो इसके जख्मों पर मरहम का काम करे और आगे बढ़ते-बढ़ते इसके जख्म हमेशा के लिए भर जाए और यह फिर से हजारों साल पुरानी अवस्था में आ जाए और फिर से हमें भरपूर खाना-पानी और सेहत दे।