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अन्नदाता के साथ कब तक होता रहेगा अन्याय

अन्नदाता के साथ कब तक होता रहेगा अन्याय

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इंदौर । आलू और टमाटर के दाम एक बार फिर निम्न स्तर पर आ पहुंचे हैं। टमाटर ने किसान को लाल कर दिया है। टमाटर की बढ़ी पैदावार के चलते मध्यप्रदेश सहित अनेक प्रदेशों में किसानों को टमाटर की फसल को फेंक देना पड़ा। यही स्थिति आलू की भी हो गई है। आलू के दाम भी 2 रुपए से लेकर 6-7 रुपए तक ही हैं। इस वर्ष सरकार ने पिछले वर्ष की तुलना में गेहूं के दाम बढ़ाकर 1735 रुपए प्रति क्विंटल किए हैं। 265 रुपए बोनस को मिला कर 2000 रुपए प्रति क्विंटल खरीदा जा रहा है।
यह तो सरकारी आंकड़ा है। इसके उलट इंदौर की मंडियों में तो यह गेहूं 1400 रुपए तक में बिक रहा है। इस पर भी कोई खरीदार नहीं मिलता। किसान परेशान हो रहा है। खाद-बीज, कीटनाशक, बिजली, ट्रैक्टर, ईंधन खर्च निकाला जाए तो सामने आएगा कि इस कीमत में तो बमुश्किल उसकी लागत का निकलना तक मुश्किल है। वैसे तो किसान को अन्नदाता कहा जाता है, लेकिन उसके साथ सदैव से ही अत्याचार होता आ रहा है। किसी भी मौसम की परवाह किए बिना वह फसल उगाता है। उसे तैयार करता है और जब बाजार में बेचने का मौका आता है तो उसे भाव ही नहीं मिलते। नतीजतन उसका खर्च और कर्ज दोनों बढ़ जाता है और वह आर्थिक संकट में घिर जाता है।
यह विडंबना ही कही जाएगी कि देश का पेट भरने वाले अन्नदाता को अपनी ही फसलों का उचित भाव नहीं मिलता। या यूं कहें कि वह अपनी ही उगाई फसल का दाम तय नहीं कर सकता। उसे सरकार या व्यापारियों पर आश्रित रहना पड़ता है। वह दिन-रात पसीना बहाता है, उसका परिवार और वह मुसीबतें उठाते हुए फसल तैयार करते हैं। जब फल मिलने का समय आता है तो उसके साथ नाइंसाफी हो जाती है। यही हाल गेहूं की फसल के मामले में भी है। उसके भाव सरकार तय करती है। इस अन्नदाता की पीड़ा को देखने-सुनने वाला कोई नहीं है। वह मौसम की मार से हुई फसलों की नुकसानी का दर्द सहकर भी उफ तक नहीं करता।
फसल तैयार करने में लगाए गए उसके श्रम का तो कोई आकलन ही नहीं। वह इस उम्मीद में कि अगली फसल के दाम अच्छे मिलेंगे, मन मार कर उसकी तैयारी में लग जाता है। अपने कर्म को पूजा समझने वाले इस अन्नदाता का स्तर ऊंचा उठाने के लिए सरकारों को आगे आना होगा। ऐसा कुछ करना होगा कि वह अपनी ही उगाई फसल का दाम तय कर सकें।
-जगदीशसिंह डाबी