25 दिसंबर 2025,

गुरुवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

विश्व दिव्यांग दिवस: हालात ने मजबूर किया, हौसलों से जीत ली जंग

कभी बैसाखी के लिए भी नहीं थे रुपये, बच्चों का भविष्य सुधारने का बना लिया उद्देश्य, स्कूल में किये की बदलाव

3 min read
Google source verification
world_disabled_day_1.png

मनीष यादव
इंदौर. प्रकृति और हालातों ने मजबूर कर दिव्यांग बना दिया, लेकिन हौसले और शिक्षा के प्रति ऐसा जुनून की मजबूरी को ही अपना हथियार बना लिया और जंग जीत ली। बेशाखी के लिए रुपए नहीं होने पर हाथों के सहारे चलकर स्कूल गए, पर स्कूल जाना नहीं छोड़ा। हालातों से लड़े और आज सरकारी स्कूल के शिक्षक तक का सफर तय कर लिया।

सरकारी नौकरी लगने के बाद भी आराम से घर नहीं बैठे बल्कि स्कूल नित नए बदलाव कर उसे करते आ रहे हैं ताकि शिक्षा हासिल करने के लिए उन्हें जो मुसीबतें झेलना पड़ी व दूसरे बच्चों को न झेलना पड़े। स्कूल के बच्चों को ही वह अपना परिवार मानते हैं और कोई पूछता है तो बड़े गर्व से कहते हैं कि उनके एक दो नहीं बल्कि डेढ़ सौ बच्चे हैं।

यह है ग्राम नान्द्रा के शासकीय उन्नत माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक बलदेव सिंह गहलोत की। पोलियो के कारण उनके पैर खराब हो गगए हैं। बलदेव बताते हैं कि 5 साल की उम्र में इस बीमारी के चलते वह बिस्तर पर आ गए थे। परिवार के हालात ऐसे नहीं थे कि उनका इलाज करा सकें। काफी दिनों तक वो बिस्तर पर ही पड़े रहे, लेकिन इसके बाद उनकी दादी का हौसला देख उनमें भी हिम्मत आई और पढ़ाई के लिए स्कूल जाना शुरू किया। तब घर से करीब 6 किलोमीटर दूर स्कूल हुआ करता था।

Must See: यात्रियों के लिए जरूरी खबरः कोहरे के चलते कई ट्रेनें रद्द, यहां देखें लिस्ट

वैशाखी खरीदने के लिए उनके पास रुपए नहीं थे। इसी के चलते वह बस्ते को पीठ पर लादकर हाथ पाव से किसी चौपाए जीव की तरह चलकर स्कूल तक जाते। प्राथमिक शिक्षा लेने के बाद माध्यमिक शिक्षा के लिए देपालपुर तक जाना होता था। इसके लिए सुबह छह बजे एक गाड़ी जाती। उस गाड़ी में बैठ कर वह देपालपुर तक जाते और फिर स्कूल शुरू होने तक वह बाहरी बैठ कर पढ़ाई करते रहते। इस तरह उन्होंने अपनी स्कूल की शिक्षा हासिल की।

ट्राईसीईकिल के लिए परेशान होते रहे
घर से कॉलेज की दूरी ज्यादा होने के कारण वह चाहते थे कि कोई संस्था उन्हें ट्राईसाईकिल दे दे, लेकिन काफी प्रयास के बाद उन्हें साइकिल नहीं मिल सकी। इसके लिए कई जनप्रतिनिधियों के आगे भी गुहार लगाई लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। किसी तरह उन्होंने अपनी कॉलेज की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद वह गांव में बच्चों और निरक्षर लोगों को पढ़ाने लगे। शिक्षाकर्मी की नौकरी लगी तो गांव के ही स्कूल में पढ़ाने का निश्चय किया।

Must See: उड़ीसा से आए कर्मचारी की आरटीपीसीआर रिपोर्ट पॉजिटिव

अपनी सैलरी से बदले स्कूल के हालत
स्कूल के उनके शुरुआती दिनों में हालत काफी खराब थी सबसे पहले अपनी सैलरी से उन्होंने पूरे स्कूल में प्लास्टिक पेंट कराया। पानी के लिए आरओ लगवाया। इसके बाद वहां पर स्मार्ट क्लास के लिए प्रोजेक्टर, कंप्यूटर और दूसरे जरूरी संसाधन भी निजी तौर पर ही उन्होंने जुटाए हैं। स्कूल में बिजली और पंखे के लिए जनसहयोग लिया है। इसके अलावा ग्रामीणों ने फर्नीचर भी दान में दिए हैं।

सिर्फ एक दिन की छुट्टी
वह रोजाना स्कूल खुलने के पहले वहां पर पहुंच जाते हैं तथा सभी के जाने के बाद ही स्कूल से घर जाते हैं। पूरे शिक्षण सत्र में सिर्फ 1 दिन गुरु पूर्णिमा पर वह अवकाश लेते हैं, क्योंकि वह दिन अपने आध्यात्मिक गुरु के साथ बिताते हैं। इसके अलावा कभी भी कोई छुट्टी उन्होंने आज तक नहीं ली है। स्कूल के अलावा वह बच्चों को निःशुल्क कोचिंग भी देते हैं। उन्हें अब तक करीबन 10 सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा समानित भी किया जा चुका है। आज उनका स्कूल सीएम राइज योजना में शामिल ही गया है। उनका कहना है कि दिव्यांग होने के कारण उनकी शादी नहीं हुई। इसलिए स्कूल और बच्चों को ही अपना परिवार मानते हैं। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को अपना बच्चा ही मानते हैं। इसके अलावा किसी भी दिव्यांग को उनकी जरूरत होती है तो मदद करते हैं।

पूरा स्कूल परिसर हराभरा किया
पढ़ाई के अलावा वह बच्चों को प्रकृति के भी करीब लेकर आते हैं। स्कूल परिसर में कई पौधे लगाए हैं जो कि अब पेड़ बन चुके हैं। सुबह बच्चों को साथ लेकर इन्हें पानी देना और देखभाल करना करते हैं ताकि वह भी इनका महत्व समझे।