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Janmashtami‬ इस कृष्ण मंदिर में दी जाती थी नरबलि, खुद प्रकट हुए थे श्री कृष्ण भगवान

राधा के संग आए मुरलीधर तो बंद हुई नरबलि, राधा-कृष्ण की प्रतिमा की स्थापना कराकर बलि की इस गलत परम्परा को बंद कराया

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जबलपुर। गोंडवाना काल में राजधानी रहे गढ़ा का अतीत भी रोचक है। अतीत के इन्ही पन्नों में दर्ज है पचमठा मंदिर का इतिहास...। माना जाता है कि पचमठा मंदिर कभी देश भर के साधकों के लिए तंत्र साधना का केन्द्र रहा। गोंडवाना काल में तो यहां नरबलि तक दी जाती थी। संत चतुर्भज दास ने मंदिर में राधा-कृष्ण की प्रतिमा की स्थापना कराकर बलि की इस गलत परम्परा को बंद कराया। विक्रम संवत 1660 में मंदिर जीणोद्धार पर लगाया गया शिलालेख आज भी इसके अनूठे इतिहास की गवाही देता है।

मिला लघु काशी का दर्जा
स्वामी चतुर्भुज दास जी द्वारा संस्कृत विद्या के प्रचार के लिए मंदिर प्रांगण में ही एक विद्यापीठ की स्थापना की थी। मंदिर के प्रमुख पुजारी कामता प्रसाद शर्मा ने बताया कि पाठशाला में अध्यन के बनारस से 7 सौ विद्यार्थी शिक्षाग्रहण करने आए थे। तभी से गढ़ा को लघु काशी भी कहने लगे।

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राजा करते थे सहयोग -
पुजारी कामता प्रसाद ने बताया कि उस दौरान गोंड़ राजाओं के द्वारा उस विद्यापीठ का संचालन और व्यवस्था की जाती थी। कहा जाता है संवत 1687 के लगभग दिल्ली के बादशाह की सेना दक्षिणी राज्यों का दमन करने पहुंची तो अनेक चमत्कारों से श्री मुरलीधर युगल ने तोडफ़ोड़ से इस स्थान की रक्षा की। जब गुरुचरण गोस्वामी वृंदावन वल्लभ जी महाराज 1958 में जबलपुर पधारे तब इस स्थल का पुन: जीर्णोद्धार कराया। वैदिक पूजन का क्रम आज भी जारी है।

यमुना जी में मिली थी प्रतिमा
पचमठा में श्री मुरलीधर व राधा जी की प्रतिमा विराजमान है। मंदिर के पुजारी कामता प्रसाद जी ने बताया कि यह प्रतिमा संत गिरधरलाल जी को यमुना में स्नान करते वक्त मिली थी। उन्होंने इसके रहस्य पर चर्चा करते हुए बताया कि गिरधरलाल जी व दामोदर लाल जी दो संत थे जो इसी स्थापन पर आए थे। तब उन्हें वृंदावन में श्री हरिवंश महाप्रभु से दीक्षा लेने की प्रेरणा मिली थी। उस वक्त श्री गिरधर लाल जी वृंदावन गए थे जहां यमुना में स्थान करते समय उन्हें श्री मुरलीधर जी की प्रतिमा प्राप्त हुई। गुरु की प्रेरणा से उन्होंने पचमठा में उक्त प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1660 में कराई थी, जिसका शिलालेख आज भी मौजूद है।

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क्या कहता है शिलालेख -
मंदिर के मुख्य द्वार पर लगा शिलालेख उसके गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है। शिलालेख में संस्कृत में इसके स्थापना का समय भी लिखा गया है। "अयति श्री हित हरि वंश अयं देवालय: श्री वंशीधर स्यास्ति अमुं श्री स्वामिना चतुर्भज दास नाम्रा विरचायित्वा गंगा सागरस्य गढ़ा ग्राम स्थाने स्य समीचीना चल्प्रतिष्ठाकृता अस्थापनादिष्ट : श्री विक्रम शुभ संवत 1660 प्रमिते गताब्दे भाद्रपद मासस्य शुक्लाष्टभ्या इति।"

यह शिलालेख पचमठा स्थित मंदिर में चार सदी के बाद भी सुरक्षित है जिसमें उल्लेख है कि भगवान मुरलीधर की प्रतिमा स्वामी चतुर्भुजदास जी द्वारा भाद्रपद शुक्ल अष्टमी( श्री राधाष्टमी महोत्सव) विक्रम संवत 1660 को स्थापित की गई थी। यह स्थान उसी समय से 'पचमठा' के नाम से प्रसिद्ध है।

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