छत्तीसगढ़ के बस्तर में मनाया जाने वाला दशहरा पर्व विश्व का सबसे दीर्घ अवधि वाला पर्व है। यह दशहरा पर्व इसलिए भी अूनठा है क्योंकि बस्तर ही एकमात्र जगह है जहां दशहरे पर रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता।
bastar dushhara
अनिमेष पाल/जगदलपुर. इस पर्व के बारे में जानकर आप हैरान रह जाएंगे। यह कोई आम पर्व नहीं है। यह विश्व का सबसे लंबी अवधि तक चलने वाला पर्व है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में मनाया जाने वाला दशहरा पूरे 75 दिन तक मनाया जाता है। बस्तर के लोग 600 साल से यह पर्व मनाते आ रहे हैं। यहां मनाया जाने वाला दशहरा पर्व इसलिए भी अूनठा है क्योंकि बस्तर ही एकमात्र जगह है जहां दशहरे पर रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता। यह पर्व बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी की आराधना से जुड़ा हुआ है। यह संगम है बस्तर की संस्कृति, राजशाही, सभ्यता और आदिवासी के आपसी सद्भावना का।
आदिवासियों की अभूतपूर्व भागीदारी की वजह से भी इस पर्व को जाना जाता है। आदिवासियों ने प्रारंभिक काल से ही बस्तर के राजाओं को हर तरह से सहयोग दिया। इसका परिणाम यह निकला, बस्तर दशहरा का विकास एक ऐसी परंपरा के रूप में हुआ जिस पर आदिवासी समुदाय ही नहीं समस्त छत्तीसगढ़वासी गर्व करते हैं।
बस्तर राज्य के समय परगनिया, मांझी, मुकद्दम, कोटवार व ग्रामीण दशहरे की व्यवस्था में समय से पहले ही जुट जाया करते थे। आज यह व्यवस्था शासन-प्रशासन करता है लेकिन पर्व का मूलस्वरुप आज भी वैसा ही बना हुआ है।
एक अनुश्रुुति के अनुसार बस्तर के चालुक्य नरेश भैराजदेव के पुत्र पुरुषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी तक पदयात्रा कर मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्ण भूषण तथा सामग्री भेंट में अर्पित की थी। इस पर पुजारी को स्वप्न आया था। स्वप्न में श्री जगन्नाथ ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति घोषित करने के लिए पुजारी को आदेश दिया था।
कहते हैं, राजा पुरुषोत्तम देव जब पुरी धाम से बस्तर लौटे तभी से गोंचा और दशहरा पर्व पर रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी। राजा पुरुषोत्तम देव ने फागुन कृष्ण चार दिन सोमवार संवत 1465 को 25 वर्ष की आयु में शासन की बागडोर संभाली थी।
तीन माह पहले पाट जात्रा से होती है शुरूआत इस पर्व का आरंभ वर्षाकाल के श्रावण मास की हरेली अमावस्या से होता है। रथ निर्माण के लिए प्रथम लकड़़़ी का पट्ट विधिवत काटकर जंगल से लाया जाता है, इसे पाट जात्रा विधान कहा जाता है। पट्ट पूजा से पर्व के महाविधान शुरू होता है।
बिलोरी के ग्रामवासी सिरहासार भवन में डेरी लाकर भूमि में स्थापित करते हैं। स्तंभ रोहण की इस परंपरा को डेरी गड़ाई कहते है। इस रस्म के बाद रथ निर्माण के लिए विभिन्न गांवों से लकडिय़ां लाकर कार्य शुरू किया जाता है।
कांटों के झूले पर बैठकर कुंवारी कन्या देती है पर्व मनाने की स्वीकृति बस्तर दशहरा पर्व मनाने की शुरूआत काछनगादी से होती है। काछिनदेवी बस्तर के मिरगान आदिवासियों की कुलदेवी है। अश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी का कार्यक्रम आयोजित होता है। रथ परिक्रमा प्रारंभ करने से पहले काछनगुड़ी में कुंवारी हरिजन कन्या को कांटे के झूले में बिठाकर झूलाते हैं तथा उससे दशहरा की अनुमति व सहमति ली जाती है।
नौ दिन तक जोगी एक आसन पर करते हैं साधना आश्विन शुक्ल प्रथमा से बस्तर दशहरा नवरात्रि कार्यक्रम दंतेश्वरी देवी की पूजा से शुरू हो जाता है। सुबह स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर में कलश स्थापन कर संकल्प पाठ किया जाता है। चंडी हनुमान बगलामुखी और विष्णु आदि देवी देवताओं के जप और पाठ नवरात्र भर चलते रहते हैं।
इसी दिन सिरहासार में प्राचीन टाउन हॉल में जोगी बिठाई की रस्म होती है। जोगी बिठाने के लिए सिरहासार के मध्य भाग में एक आदमी के बैठने लायक एक गड्ढा बनाया जाता है। इसके अंदर हलबा जाति का एक व्यक्ति लगातार नौ दिन योगासन में बैठा रहता है। इस दौरान वह मल-मूत्र का भी त्याग नहीं करता है। जोगी बिठाई से पहले एक बकरा और 7 मांगुर मछली काटने का रिवाज था। अब बकरा नहीं काटा जाता मांगुर माछ ही काटे जाते हैं।
छह दिन तक फूल रथ करता है परिक्रमा जोगी बिठाई के दूसरे दिन से फूल रथ चलना शुरू हो जाता है। अश्विन शुक्ल द्वितीया से अश्विन शुक्ल सप्तमी तक चलने वाले फूलरथ पर वाले राजा बैठते हैं। उनके साथ देवी दंतेश्वरी का छत्र आरुढ़ रहता है। साथ में देवी का पुजारी रहता है। प्रतिदिन शाम एक निश्चित मार्ग पर रथ परिक्रमा करता हुआ राजमहल के सिंहद्वार के सामने खड़ा हो जाता है।
रथ के साथ गांव-गांव से से आमंत्रित देवी देवता भी चलते है। उनके छत्र डंगइयाँ, पहले बस्तर दशहरा में इस रथयात्रा के दौरान हल्बा सैनिकों का वर्चस्व रहता था। आज भी उनकी भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है। अश्विन शुक्ल 7 को चार पहियों वाले रथ की समापन परिक्रमा चलती है। दुर्गाष्टमी को निशाजात्रा होता है। निशाजात्रा का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है। दंतेवाड़ा से पहुंचती है मावली देवी, राजा करते हैं स्वागत अश्विन शुक्ल नवमीं की शाम सिरासार में समाधिस्थ जोगी को समारोह पूर्वक उठाया जाता है। जोगी को भेंट देकर सम्मानित करते हैं। इसी दिन रात में मावली परघाव होता है। दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। मावली देवी को दंतेश्वरी का ही रूप मानते हैं।
नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है। उस मूर्ति को पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है। मावली माता निमंत्रण पाकर दशहरा पर्व में सम्मिलित होने जगदलपुर पहुँचती हैं। पहले इनकी डोली को राजा, कुँवर, राजगुरु और पुजारी कंधे देकर दंतेश्वरी मंदिर तक पहुँचाते थे। आज भी पुजारी, राजगुरु और राजपरिवार के लोग श्रद्धा सहित डोली को उठा लाते हैं।
विजयादशमी को चलता है आठ चक्कों वाला रथ विजयादशमी के दिन भीतर रैनी तथा एकादशी के दिन बाहर रैनी होता है। दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है। भीतर रैनी के दिन यह रथ अपने पूर्ववर्ती रथ की ही दिशा में अग्रसर होता है। इस रथ पर झूले की व्यवस्था रहती है। इस पर पहले रथारुढ़ शासक वीर वेश में बैठकर झूला करता था।
विजयदशमी की शाम को रथ के समक्ष एक भैंस की बलि दी जाती थी लेकिन अब यह परंपरा खत्म हो चुकी है। भैंस को महिषासुर का प्रतीक माना जाता था। विजयादशमी के रथ की परिक्रमा जब पूरी हो जाती है तो आदिवासी आठ पहियों वाले इस रथ को प्रथा के अनुसार चुराकर कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं।
बाहर रैनी पर कुम्हड़ाकोट में देवी को अर्पित करते हैं नया अन्न राजमहल से लगभग दो मील दूर कुम्हड़ाोट में बाहर रैनी के दिन राजा देवी को नया अन्न अर्पित कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। बाहिर रैनी का झूलेदार रथ कुम्हड़ाकोट से चलकर थाने की ओर से सदर रोड होते हुए सदर प्राथमिक शाला के निकट के चौराहे से गुजरते हुए सिंह द्वार तक पहुंचता है। यहां पहुंचने में रात हो जाती है।
रियासतकाल में बस्तर दशहरे के रथ की प्रत्येक शोभायात्रा में सुसज्जित हाथी घोड़ों की भरमार रहती थी। मावली माता की घोड़ी को चाँदी के जेवरों से सजाया जाता था। उसके पावों में चाँदी के नूपुर बजते रहते थे और माथे पर चाँदी की झूमर होती थी। पीठ के नीचे तक एक जऱीदार रंगीन साड़ी झिलमिलाती रहती थी।
एक सुसज्जित घोड़े पर सवार मगारची नगाड़े बजा बजा कर संकेत देता चलता था कि पुजारी समेत देवी दन्तेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ होने या उतारने में कितना समय और शेष है।
मुरिया दरबार में होता है समस्याओं का समाधान निविज़्घ्न दशहरा संपन्न होने पर काछिनगुड़ी के पासवाले पूजामंडप में काछिन देवी को सम्मानित किया जाता है। शाम को सीरासार में लगभग 5 बजे से ग्रामीण तथा शहर के मुखियों की एक मिली जुली आमसभा होती है।
इसमें विभिन्न परगनाओं के मांझी-मुखिया विभिन्न समस्याओं के निराकरण पर खुली चर्चा करते हैं। इस सभा को मुरिया दरबार कहते हैं। इसी के साथ गांव-गांव से आए देवी-देवताओं की विदाई हो जाती है।