
आलोक श्रीवास्तव, देश के प्रतिष्ठित हिन्दी लेखक और गीतकार
‘आप क्या करते हैं, जी मैं लेखक हूं।’ ‘वह तो ठीक है पर काम क्या करते हैं, ‘जी, मैं लिखता हूं।’‘मैं समझ गया, किंतु संभवत, आप मेरा आशय नहीं समझे, लेखन के अलावा आप काम क्या करते हैं?’‘जी यही मेरा काम है।’ लेकिन यह कौन-सा काम हुआ?’ बतौर लेखक यह दिलचस्प घटना कितनी ही बार, कितने ही लेखकों के साथ घटी होगी। दरअसल, हिन्दी के लेखन को काम माना ही नहीं जाता, क्योंकि जब आप हिन्दी की हैसियत को ही मान नहीं दे रहे तो उसके लेखक को क्या मान देंगे? किंतु आज स्थितियां वैसी नहीं रहीं। आज हिन्दी के युवा लेखकों का एक बड़ा वर्ग अपनी इस भाषा के माध्यम से अपनी पहचान का परचम लहरा रहा है। वह गर्व से कहता है कि वह हिन्दी का लेखक है, उपन्यास लिखता है, कहानियां लिखता है, कविताएं, गीत, गजल कहता है। यह लेखक इल्म से लेकर फिल्म तक अपना डंका बजा रहा है। उसके लिए हिन्दी शर्म नहीं, धर्म है। बहुतों को इस धर्म का मर्म समझ आ गया है, जिन्हें नहीं आया है उन्हें यह समझना होगा कि आज हिन्दी एक ऐसा कर्म भी बन गया है, जिससे हम जैसे कितने ही युवा लेखक, कवि, गीतकार अपना नाम और दाम दोनों कमा रहे हैं। वह भी साहित्य की सच्चाई को सजाए रखते हुए और अपनी प्रतिबद्धता को बचाए रखते हुए। यही वजह है कि इधर हिन्दी लेखकों की नई पीढ़ी का जिस तरह आगमन हो रहा है वह आश्चर्यचकित करता है। हिन्दी में अंग्रेजी की तरह ब्रांड बनने और बनाने का जो चलन चला है, वह भी कम सुखद नहीं है। यूं तो हिन्दी उपन्यास, कहानी और कविताओं का आकाश अपने नए नक्षत्रों से हर दस-बारह साल में जगमगाता रहा है, हर नए कलमकार ने इस आकाश में अपने हिस्से की स्याही से नए नए इंद्रधनुष बनाए हैं, किंतु इधर हिन्दी के युवा प्रकाशकों की सोच और सोशल मीडिया की सक्रियता से इन नई रश्मियों का आलोक और प्रखर हुआ है।
कल तक चंद लेखकों के बीच, अकादमियों के कमरों में सिमटा हिन्दी कहानी-पाठ आज स्टोरी-टेलिंग बन कर सैकड़ों लोगों की तालियां बटोर रहा है। साथ ही, उन सुनने वालों में भी कल के हिंदी लेखकों की संभावना जागृत कर रहा है। कवि-सम्मेलनों के गिरते स्तर से ऊबा आज का युवा, ख़ुद माइक पकड़ कर खड़ा हो गया है और कविता के नाम पर मंचों पर परोसे जाने वाले भोंडे वॉट्सऐप जोक्स की जगह, अपनी विशुद्ध वैचारिकी प्रस्तुत कर, वायरल हो रहा है।
यह सच है कि 'रीयल लाइफ' के सत्य से उपजे साहित्य के सामने 'रील-लाइफ' की रीच महत्त्वहीन है, किंतु दूसरे नजरिए से सोचें तो यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि यह सारा परिवर्तन हिन्दी की उंगली थाम कर ही हो रहा है. वे युवा जो कल तक अंग्रेजी के आकर्षण में मुग्ध थे, आज हिन्दी में अपना और अपने जैसों का आकाश बनते देख इतरा रहे हैं। आज हिन्दी अपने इन नए परों से, नई उड़ान भर रही है।
तीन दशक के अपने लेखकीय जीवन में मैंने हमेशा उस ज़बान की हिमायत की है जो न पूरी तरह हिन्दी है और न पूरी तरह उर्दू। मेरा मानना रहा है कि हम सब जो ज़बान बोलते-बतियाते हैं वह हिन्दी-उर्दू की मिली-जुली तहजीब से पैदा हुई 'हिन्दुस्तानी' है। पर गर्व यह भी है कि यह दोनों जबानें हमारी अपनी जबानें हैं, जिनका प्राण हिन्दी है और अपने प्राण से प्रेम किसे नहीं होता? अपनी उसी प्राण-भाषा की एक रचना के साथ आप सभी को हिन्दी दिवस की अनंत शुभकामनाएं।
जो दिख रहा है सामने वो दृश्य मात्र है,
लिखी रखी है पटकथा, मनुष्य पात्र है।
नए नियम समय के हैं- असत्य; सत्य है,
भरा पड़ा है छल से जो वही सुपात्र है।
विचारशील मुग्ध हैं कथित प्रसिद्धि पर,
विचित्र है समय, विवेक शून्य-मात्र है।
है साम-दाम-दंड-भेद का नया चलन,
कि जो यहां कुपात्र है, वही सुपात्र है।
हृदय में भेदभाव हो, घृणा समाज में,
यही तो वर्तमान राजनीति शास्त्र है।
घिरा हुआ है पार्थ-पुत्र चक्रव्यूह में,
असत्य सात और सत्य एक मात्र है।
कहीं कबीर, सूर की, कहीं नजीर की,
परम्परा से धन्य ये गजल का छात्र है।
-आलोक श्रीवास्तव, देश के प्रतिष्ठित हिन्दी लेखक और गीतकार
Updated on:
13 Sept 2024 07:00 pm
Published on:
13 Sept 2024 06:14 pm
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