
राजेन्द्रसिंह देणोक : आजादी के समय से राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की मांग चल रही है। कई सरकारें आई-गईं, राजनेता, साहित्यकार और लेखक पैरवी करते करते थक गए लेकिन अब तक राजस्थानी भाषा को उसका हक नहीं मिला। मायड़ भाषा को मान दिलाने की इसी मुहिम को अब महिलाओं ने अपने हाथ में ले लिया है। महिला शक्ति अब बढ़-चढक़र मायड़ के प्रचार-प्रसार में लगी हैं। कोई राजस्थानी में पीएचडी कर रही है तो कोई किताबों के जरिए आवाज बुलंद कर रही है। प्रदेश के चार विश्वविद्यालयों में राजस्थानी भाषा विभाग हैं। इनमें ज्यादातर महिलाएं ही मायड़ भाषा में अध्ययन कर रही हैं।
जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय से राजस्थानी में पीएचडी कर चुकी लक्ष्मी भाटी की पहली किताब का विषय भी राजस्थानी भाषा के लिए आंदोलन है। पीएचडी का यह टॉपिक चुनने के पीछे भी उनकी मंशा मायड़ भाषा की मुहिम को आगे बढ़ाना और युवा पीढ़ी को जोडऩा है। राजस्थानी भाषा की मान्यता के लिए संघर्षरत समिति में वे सक्रिय भी हैं। कहती हैं कि संस्कृति के संरक्षण के लिए राजस्थानी भाषा की मान्यता जरूरी है।
पाली की भानुमती का कहना है कि राजस्थानी साहित्य अपने आप में समृद्ध है, लेकिन महिला लेखकों के तौर पर कम ही नाम हैं। राजस्थानी में महिला लेखकों में लक्ष्मीकुमारी चुण्डावत बड़ा नाम है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए भानुमती ने जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय से पीएचडी कर राजस्थानी भाषा को ऊंचाइयां देने वाली लेखिका लक्ष्मीकुमारी चुण्डावत के जीवन पर किताब लिखी। भानुमती किताबों के जरिए मायड़ भाषा में राजस्थानी आंदोलन बढ़ा रही हैं।
जोधपुर निवासी बसंती पंवार राजस्थानी में एक दर्जन से ज्यादा उपन्यास, काव्य संग्रह लिखे हैं। कई पुस्तकों का अनुवाद और संपादन किया है। हिंदी से राजस्थानी शब्द कोश और उपनिषद का राजस्थानी में अनुवाद किया है। पंवार न केवल राजस्थानी लेखन में सक्रिय है, बल्कि कई संस्थाओं के जरिए राजस्थान को मान्यता दिलाने की आवाज को बुलंद कर रही हैं। वे महिला लेखकों को राजस्थानी साहित्य लेखन के लिए प्रेरित भी कर रही हैं।
Published on:
21 Feb 2024 10:22 am
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