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राजस्थान का रण: बना सकते थे पर नहीं बनाया परिवार में किसी को नेता

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जयपुर

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Abdul Bari

Nov 10, 2018

राजस्थान का रण: बना सकते थे पर नहीं बनाया परिवार में किसी को नेता

राजस्थान का रण: बना सकते थे पर नहीं बनाया परिवार में किसी को नेता

सिर्फ 'अपनों'को तारने के दौर में कई ऐसे भी

जयपुर.

राजनीति के मायने आज बदल चुके हैं। त्याग, समर्पण और विचारधारा की जगह राजनीति आज 'जिताऊ' शब्द पर जाकर अटक गई है। 'जिताऊ' का मतलब जो सीट जिताकर देने की काबिलियत रखता हो। फिर चाहे वो दागी हो, बागी हो, दलबदलू हो या फिर पैराशूटर। प्रदेश में दोनों प्रमुख दल टिकट बांटने की प्रक्रिया में व्यस्त हैं।

रणकपुर से लेकर जयपुर और जयपुर से लेकर दिल्ली तक होटलों, पार्टी मुख्यालयों और गुप्त स्थलों पर प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में नेता मशगूल हैं। ऐसे में एक बात है जो सभी दलों में साफ उभर कर सामने आ रही है, वो है परिवारवाद। राजस्थान में प्रत्याशियों के नामों की घोषणा आजकल में होने को है। नेता जिताऊ के नाम पर पहले स्वयं को और नहीं तो अपने पुत्र-पुत्रियों, पत्नियों, भाई और भतीजों के नाम आगे बढ़ा रहे हैं। हर बार की तरह इस बार भी 'नेता' परिजनों को टिकट मिलेंगे। हर बड़ा नेता आज 'अपनों' की टिकट के लिए परेशान है। लेकिन राजनीति में परिवारवाद के इस दौर में ऐसे नेता भी रहे हैं जिन्होंने सर्वोच्च पद पर पहुंचने के बावजूद 'अपनों' से अधिक चिंता कार्यकर्ता के लिए की। ऐसे नेता अंगुलियों पर गिनने लायक हैं, जिन्होंने 'पावर' में होने के बावजूद अपनों की चिंता नहीं की। यह अफसोस की ही बात है कि हम परिवारवाद फैलाने वालों को तो याद करते हैं लेकिन जो उससे दूर रहे, उनका नाम तक नहीं लेते।

प्रदेश की सत्ता में पांच दशक तक कांग्रेस रही है। इसलिए पहले बात कांग्रेस की। कांग्रेस की राजनीति में दिग्गज रहे माणिकलाल वर्मा, मोहनलाल सुखाडिया, हरिदेव जोशी, जगन्नाथ पहाडिय़ा, रामनिवास मिर्धा, नाथूराम मिर्धा, कमला बेनीवाल, शीशराम ओला, नवल किशोर शर्मा, रामनारायण चौधरी, राजेश पायलट, अशोक गहलोत, चंदनमल बैद और पूनमचंद विश्नोई ऐसे नेताओं में शुमार हैं जिनके पुत्र-पुत्री अथवा पत्नी या भाई-दामाद में से कोई न कोई राजनीति के मैदान में उतरा। किसी ने चुनाव लड़ा, कोई पार्टी पदाधिकारी बना तो किसी ने टिकट के लिए भागदौड़ की। यही हाल भाजपा का रहा है। भैरोंसिंह शेखावत, वसुंधरा राजे, जसवंत सिंह और भंवर लाल शर्मा के पुत्र-पुत्री अथवा दामाद राजनीति के अखाड़े में उतरे।

लेकिन दोनों दलों में कुछ नेता ऐसे भी रहे जिन्होंने अपने परिवार को राजनीति के अखाड़े में नहीं कूदने दिया। कांग्रेस की तरफ से शिवचरण माथुर, मथुरादास माथुर, हीरालाल देवपुरा, जयनारायण व्यास, हीरालाल शास्त्री ऐसे नेता रहे, जिन्होंने अपने परिवार को राजनीति से अलग रखा। ये नेता अपने दौर में कांग्रेस की राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे और चाहते तो परिवार के किसी सदस्य को टिकट दिला सकते थे। शास्त्री, व्यास, माथुर और देवपुरा प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर रह चुके हैं जबकि मथुरादास माथुर सालों तक महत्त्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे हैं।

भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता रहे हरिशंकर भाभड़ा, सतीश चन्द्र अग्रवाल, गुलाब चंद कटारिया और ललित किशोर चतुर्वेदी भी अपने समय में भाजपा की राजनीति के सिरमौर रहे हैं। भाभड़ा भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष रहने के साथ राज्य के उपमुख्यमंत्री और विधानसभाध्यक्ष भी रहे। इसी तरह सतीश चन्द्र अग्रवाल केन्द्र में मंत्री रहे तो गुलाब चंद कटारिया पिछले चार दशकों से भाजपा की राजनिीति में सक्रिय हैं। इन दिग्गजों ने बहुत से कार्यकर्ताओं को नेता बनाया। लेकिन कभी अपने परिवार के सदस्यों को आगे लाने में रुचि नहीं दिखाई। इनके परिवार के सदस्यों के लिए राजनीति का मतलब सिर्फ चुनाव में इनकी मदद करना भर रहा। छत्तीसगढ़-मध्यप्रदेश में सूची सामने आ चुकी है। हर बड़े नेता के परिजन को टिकट मिली है। राजस्थान की सूची में भी कुछ ऐसा ही नजारा दिखने की उम्मीद है।

मिर्धा परिवार
सबसे अव्वल राजस्थान की राजनीति में नागौर का मिर्धा परिवार सबसे बड़ा माना जाता है। इस परिवार से नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, ज्योति मिर्धा, हरेन्द्र मिर्धा, रिछपाल मिर्धा और भानुमिर्धा देश और प्रदेश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे। इस परिवार के सदस्यों ने कांग्रेस, भाजपा और जनता दल के टिकटों पर न सिर्फ चुनाव लड़ा, बल्कि विधानसभा और लोकसभा में भी पहुंचे।