
जयपुर . राजस्थान के पश्चिम हिस्से बाड़मेर के माडपुरा गांव में जन्मे डॉ. नंद भारद्वाज ने अपनी पढ़ाई के लिए एक नई राह बनाते हुए कड़ी मेहनत के दम पर अपनी खास पहचान बनाई। मंडे मोटिवेशन सीरिज के तहत पत्रिका प्लस की टीम रविवार को मानसरोवर स्थित डॉ. भारद्वाज के घर पहुंची और उनकी जीवन यात्रा को जानने का प्रयास किया। आज डॉ. नंद भारद्वाज लेखक, कवि, आलोचक और राजस्थानी साहित्य के लिए पहचाना नाम है, लेकिन यहां तक के सफर के लिए उन्होंने कई परेशानियों को पार किया। पेश हैं, नंद भारद्वाज से बातचीत के अंश:-
अक्षर ज्ञान के साथ पिता के संस्कार मिले
नंद भारद्वाज ने बताया कि जिस गांव में हम रहा करते थे, वहां स्कूल तो था, लेकिन उसमें सुविधाएं नहीं थी। गांव में एक जिप्सम कंपनी के शुरू होने के बाद वहां उन्होंने एक स्कूल बनवाया और भाई उसमें नौकरी करने लगे तो मेरा उसमें एडमिशन हो गया। पिता पंचांग से जुड़े सभी कार्य करते थे और वे कबीर के भजन, गीता पाठ और भक्ति साहित्य सुनाया करते थे। इसलिए मुझे स्कूल में अक्षर ज्ञान और घर में पिता के संस्कार मिल रहे थे। पिता ने अच्छे काम के लिए हमेशा बढ़ावा दिया और सच्चाई को हमेशा साथ रखने की सलाह दी। इसी दौरान कुछ अच्छे शिक्षक मिले और उन्होंने प्रोत्साहित किया। एक शिक्षक थे लज्जारामजी, उनका काफी प्रभाव रहा, जिस पर मैंने एक कविता 'हरी धूप का सपना ' भी लिखी, इसी शीर्षक से कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ।
हायर सेकेण्डरी के लिए सब कुछ छोड़ा
उन्होंने बताया कि गांव में सिर्फ आठवीं तक पढ़ाई की, हिम्मत नहीं करता तो यहीं तक पढऩा नहीं होता। आगे पढऩे के लिए बाड़मेर जाना था और परिवार वालों ने मना ही कर दिया। टीचर्स के प्रोत्साहन पर घरवालों को थोड़ा मनाने का प्रयास किया। पैरेंट्स ने यह कहकर भेज दिया कि कुछ नहीं कर पाए तो वापस आ जाना। मैं बुलंद हौसले के साथ कई किलोमीटर दूर शहर पहुंचा। स्कूल में एडमिशन लेने के बाद रहने-खाने की व्यवस्था की प्लानिंग में जुट गया। वहां एक ऑफिसर्स क्लब में पिकीज (बॉल बॉय) का काम मिल गया और वहीं रहने की व्यवस्था हो गई। मेरे लिए यहां सबसे ज्यादा फायदा यह हुआ कि यहां देशभर के राष्ट्रीय अखबार आया करते थे और कई नामचीन मैग्जीन भी पढऩे को मिल जाया करती थीं। वहां सचिव ने मुझे पढ़ते हुए और रचनात्मक लेखन करते हुए देखा, तो उन्होंने क्लब के अकाउंट्स के काम में लगा दिया। यहां से १०वीं फस्र्ट क्लास में पास की, इसके बाद बच्चों का ट्यूशन मिलने लगी और इससे आत्मनिर्भर हो गया।
17 साल रेडियो, 33 साल दूरदर्शन
नंद भारद्वाज ने बताया कि रुचिकर नौकरी के चलते रेडियो में काम शुरू किया और १७ साल काम करने के बाद दूरदर्शन में चला गया, यहां ३३ साल अलग-अलग जगह काम किया। जॉब के दौरान भी मेरी प्राथमिकता लेखन होता था, हमेशा समय बचाने की प्लान करता और उस समय को किताबों पर खर्च करता। गुवाहाटी में जब पोस्टिंग थी, तब पहला उपन्यास 'झील पर हावी रात' लिखा था। मेरे पसंदीदा राइटर्स में विक्टर भुगो, स्वातिका, मेक्सन गोटकी टॉलस्टॉय जैसे कई नाम है, जिन्हें पढऩा हमेशा पसंद है। अभी जेएलएफ में बतौर सलाहकार सहित कई संस्थाओं मे सलाहकार की भूमिका में जुड़ा हुआ हूं और चार-पांच किताबों पर काम चल रहा है।
साहित्यकारों की हत्याओं पर प्रतीकात्मक विरोध दर्ज कर अवॉर्ड वापसी की घोषणा की थी, यह राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक निर्णय था। जब अकादमी ने निंदा प्रस्ताव जारी किया तो मैंने भी अन्य साहित्यकारों के साथ निर्णय वापिस ले लिया। हालांकि इस मामले को राजनीतिक रंग दे दिया गया।
सेल्फ लाइब्रेरी तैयार
भारद्वाज ने बताया कि उस समय हिंदी पॉकेट बुक्स योजना शुरू हुई थी और एक रुपए में पुस्तक मिला करती थी। इसी के चलते मैंने अपनी सेविंग्स से बुक मंगवाना शुरू किया। अपनी सेल्फ लाइब्रेरी को डवलप किया और उस समय के चर्चित लेखकों, कवियों और साहित्यकारों को पढऩे लगा। शरतचन्द्र से लेकर रवीन्द्र नाथ टैगोर और अमृता-प्रीतम जैसे ख्यातनाम लोगों की रचनाएं दिलो-दिमाग में बस गई। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सेल्फ राइटिंग की शुरुआत की और मेरे लिखे हुए को अपने टीचर शांतु गोपाल पुरोहित से चैक करवाया करता था। उन्होंने मेरी लेखन क्षमता को देखते हुए आगे भी लिखने के लिए प्रेरित किया। ऑफिसर्स क्लब के लोगों के प्रोत्साहन के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए जयपुर आ गया। यहां आते ही कई न्यूजपेपर्स और पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ गया और उनमें लेख प्रकाशित होने लग गए। 1974 में पहली कविता संग्रह 'अंधा पर्क प्रकाशित हुई, जिसे 1975 में अवॉर्ड भी मिला।

Published on:
07 May 2018 03:36 pm
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