22 दिसंबर 2025,

सोमवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

आज भी गूंजता है दोहरी बांसुरी का लोकसंगीत, डिजिटल दौर में भी जिंदा है ‘अलगोजा’

Rajasthani folk music: चरवाहों की चौपाल से पहाड़ों, जंगलों व खेत-खलिहानों तक संस्कृति का प्रतीक है अलगोजा। ग्रामीण परिवेश में आज भी गूंजती है बांसुरी की मधुर धुन।

2 min read
Google source verification

जयपुर

image

MOHIT SHARMA

Sep 19, 2025

Photo: Patrika

Photo: Patrika

Alghoza instrument: कोटपूतली-बहरोड़. राजस्थान के लोकजीवन में संगीत केवल मनोरंजन नहीं बल्कि संस्कृति और जीवनशैली का हिस्सा है। इसी परंपरा में अलगोजा वाद्य यंत्र है जिसे दोहरी बांसुरी कहा जाता है जो प्रदेश का प्रमुख वाद्य यंत्र भी है। आज भी जिले के ग्रामीण परिवेश में अपनी अमिट पहचान बनाए हुए है। आधुनिक यंत्रों की चकाचौंध के बीच यह वाद्य गडरिया और चरवाहों की सांसों में रचा-बसा है। मुख्यत: चार-चार छेद वाला यह वाद्य यंत्र चरवाहों के पास मिलता है जिन्हें वह खुद ही केर व बांस की लकड़ी से बनाते हैं। जिले के दूरस्थ पहाड़ी व ग्रामीण अंचल में जब गडरिया और चरवाहे अपने भेड़-बकरियों या गाय-भैंसों के झुंड लेकर खुले चरागाहों, जंगलों, पहाड़ों में निकलते हैं तो उनके साथ अलगोजे की धुन भी गूंजती है। भेड़ों की घंटियों और गायों की घुंघरुओं की टुनक के साथ मिलकर अलगोजे की तान वातावरण को और भी सुरम्य बना देती है। राहगीर अक्सर रुककर इस अनोखे संगीत का आनंद लेते हैं।

संगीत और साधना का संगम, संरचना और शैली

अलगोजा दो बांसुरियों का संगम है। जब दोनों में एक साथ फूंक दी जाती है तो धुन ऐसी बनती है मानो प्रकृति खुद गा रही हो। अलगोजा बजाना किसी साधना से कम नहीं है। दो बांसुरियों में एक साथ सांस भरकर कलाकार अनोखी तान पैदा करता है। एक बांसुरी से निकलता है मुख्य स्वर (सुर) जबकि दूसरी देती है स्थिर लय (राग)। यही कारण है कि अलगोजा जीवन के उतार-चढ़ाव और स्थिरता-अस्थिरता का सुंदर प्रतीक बन जाता है। लोककथाओं में इसकी धुन को मनुष्य और परमात्मा के संवाद से भी जोड़ा गया है। चरवाहे रामपाल ने बताया कि दो बांसुरियों का यह जोड़ा नर और नारी का भी प्रतीक है, साथ ही जीव और शिव का भी। लोककथाओं में अलगोजे की ध्वनि को आत्मा और परमात्मा के संवाद के रूप में भी देखा गया है। एक बांसुरी जीवन के आधार का प्रतीक है जबकि दूसरी बदलते सुर जीवन की भावनाओं का। इसकी धुन प्रेम, विरह और आध्यात्मिकता का अनूठा संगम मानी जाती है।

ग्रामीण संस्कृति की पहचान

गांव की चौपालों पर बैठे बुजुर्ग हों या मेलों-त्योहारों पर जुटे ग्रामीण, अलगोजे की तान सबको बांध लेती है। भवाई नृत्य, घूमर और तीज-त्योहारों में ही इसका इस्तेमाल नहीं होता है बल्कि आम चरवाहों की भी जीवनधारा से जुड़ा हुआ है।

आधुनिक समय में महत्व

डिजिटल दौर में जहां संगीत मोबाइल और टीवी तक सिमट गया है वहीं अलगोजा गडरिया और चरवाहों की सांसों में अब भी जिंदा है। यह केवल एक वाद्य नहीं बल्कि उनकी परंपरा, पहचान और संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। अलगोजा की यही अनोखी तान जिले के ग्रामीण परिवेश को अपनी जड़ों से जोड़े रखती है और लोकसंगीत की उस विरासत को जीवित रखती है जो दिल से निकलकर सीधे आत्मा को छू जाती है। आज जब मोबाइल और डिजिटल संगीत ने जीवन को बदल दिया है तब भी कोटपूतली-बहरोड़ के चरवाहे इस वाद्य को संजोए हुए हैं। अलगोजा उनके लिए केवल एक वाद्य नहीं बल्कि परंपरा, पहचान और संस्कृति का प्रतीक है।