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जैसलमेर में ‘डायनासोर’: रीढ़ और पसलियां स्पष्ट, जीवाश्म होने की पुष्टि और मजबूत

मखमली धोरों की धरती जैसलमेर अब केवल पर्यटन और स्थापत्य सौंदर्य ही नहीं, बल्कि अपनी अनमोल भू-सम्पदा के कारण भी विश्व स्तर पर पहचान बना रहा है। जुरासिक काल के जीवाश्मों की खोज ने यहां को वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद खास बना दिया है।

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मखमली धोरों की धरती जैसलमेर अब केवल पर्यटन और स्थापत्य सौंदर्य ही नहीं, बल्कि अपनी अनमोल भू-सम्पदा के कारण भी विश्व स्तर पर पहचान बना रहा है। जुरासिक काल के जीवाश्मों की खोज ने यहां को वैज्ञानिक दृष्टि से बेहद खास बना दिया है।

जिले में डायनासोर की मौजूदगी की कहानी यूरोपियन यूनियन की जुरासिक कांग्रेस से जुड़े वैज्ञानिकों के फुटप्रिंट खोजने से शुरू हुई थी। अब यह सिलसिला और मजबूत हो चुका है। हाल ही में मेघा गांव में मिले कंकालनुमा ढांचे ने जैसलमेर में डायनासोर की उपस्थिति के प्रमाणों को और भी पुख्ता कर दिया है। दो दिन पूर्व सामने आई इस संरचना का निरीक्षण भू - वैज्ञानिक डॉ. नारायणदास इणखिया ने किया। उन्होंने वैज्ञानिक पद्धति से आसपास की मिट्टी और पत्थरों को हटाकर अवशेष को विस्तार से देखा। सुखद तथ्य यह रहा कि बाहर उभर कर दिख रही रीढ़ की हड्डी से जुड़ी पसलियां बेहद साफ रूप में दिखाई देने लगीं। इससे इसके जीवाश्म होने की संभावना प्रबल हो गई।

दफनाने की परंपरा से अलग

डॉ. इणखिया के अनुसार यह सामान्य कंकाल नहीं हो सकता। जैसलमेर में पशुओं को दफनाने की परंपरा कभी नहीं रही। यदि कोई दफन भी दे तो यहां के वातावरण के कारण वह कुछ समय में नष्ट हो जाता है। तालाबों के आगोर में ग्रामीण दफनाने की अनुमति भी नहीं देते। साथ ही, आसपास की जमीन कठोर मगरा होने से दफनाना लगभग असंभव है।

भारत की पहचान बनते अवशेष

मेघा गांव में मिले ये जीवाश्म अब केवल जैसलमेर ही नहीं, बल्कि पूरे भारत की पहचान बन रहे हैं। जुरासिक काल की चट्टानों में इसकी उपस्थिति स्पष्ट करती है कि यह अवशेष डायनासोर या उसकी किसी प्रजाति से संबंधित हो सकते हैं। यह खोज जैसलमेर को वैश्विक स्तर पर च्जुरासिक पार्कज् की पहचान देने लगी है।