
कभी थी मरुस्थल की शान, आज दुर्लभ वनस्पति के रूप में पहचान
लाठी/जैसलमेर. थार की दुर्लभ और संकतग्रस्त वनस्पति जो कभी घर-घर मे खाई जाती थी, आज उन्हें बचाने की कवायद की जा रही है। पश्चिमी राजस्थान के किसान एक ओर जहां किनोआ, खजूर, जैतून, स्ट्राबेरी आदि उगाकर कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं, वहीं पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर जिले के कुछ युवा किसान विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी पारम्परिक मरुस्थलीय वनस्पतियों को संरक्षित रखने की कोशिश में जुटे हैं। जानकारों की मानें तो नहर आने के बाद थार मरुस्थल के बदले पर्यावरण और जमीन उपयोग की बदली तकनीकों के कारण अनेक प्रकार की देसी पारम्परिक वनस्पतियां जैसे पिम्पा, खिरोली, भाखर कंदी लाणा, फोग, खिंपोली आदि जो पहले मरुस्थलीय भोजन का सामान्य हिस्सा थी, आज पिछड़ चुकी हैं। यहां तक कि इनमे से कुछ किस्में अत्यधिक सिंचाई व सेम की समस्या के चलते विलुप्ति की कगार तक पहुंच चुकी हैं। इन्ही पारम्परिक खाद्य वनस्पतियों को बचाने और स्वाद के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उनका सम्मानजनक स्थान पुन: दिलाने के लिये जैसलमेर के कुछ किसान प्रयासरत हैं।
छप्पनिया अकाल में बनी थी सहायक
रामगढ़ गांव के जैविक किसान अमिताभ बालोच, जो इन किस्मों के बीजों का संग्रहण व संरक्षण करके उन्हें आम जनता तक पहुंचा रहे हैं, बताते हैं कि इन देसी किस्मों के बारे में राजस्थान की वर्तमान पीढ़ी भी अनभिज्ञ है। कारण यह है कि इन किस्मों को उगाया नहीं जाता था, इन्हें सीधा रेगिस्तान से एकत्रित कर साफ करके उपयोग में ले लिया जाता था। धीरे-धीरे आधुनिकता के साथ इन्हें भुला दिया गया। यह किस्में एक प्रकार की सुपर फूड किस्में हैं, जिनकी बदौलत छप्पनिया जैसे अकाल को भी जैसलमेर के बाशिंदे झेल गए थे। बोनाडा गांव के जुगतदान, जो पिछले दो वर्षों से ऐसे ही एक देसी फल खिरोड़ी के पौधे तैयार कर रहे हैं। वे बताते हैं कि यह देसी फल जो पहले काफी लोकप्रिय था, आधुनिक कृषि तकनीकों और जमीन उपयोग के बदलते तरीकों के कारण बहुत कम दिखाई देने लगा था। जब इन्हें इनके खेत में इसके कुछ पौधे उगे हुए दिखे तो इन्होंने इन्हें उखाडऩे के बजाय सुरक्षित रखने का निर्णय लिया। इसके मीठे फल वे अपने खेत पर आने वाले आगंतुकों को खिलाते हैं, जिससे इनकी मांग बढऩे लगी और अब अनेक लोग इनके फलों और पौधों की माँग करने लगे हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संभावनाएं अपार
जैसलमेर में जैविक कृषि प्रोत्साहन का काम करने वालेअथरान ऑर्गेनिक्स के पार्थ जगाणी बताते हैं कि यह देसी किस्मे जैसलमेर के मरुस्थलीय वातावरण की किस्में हैं जिन्हें पानी, खाद व दवाइयों की बहुत कम आवश्यक्ता होती है और यह मरुस्थल के अलावा अन्य क्षेत्रों में नहीं उग पाती। इसके साथ पूरी दुनिया इनके स्वाद व आयुर्वेदिक गुणों से अपरिचित है। अत: यहां काफी कम खर्चे, कम सिंचाई व कम देखरेख में इन वनस्पतियों की खेती और उनके अंतरराष्ट्रीय व्यापार की अपार संभावनाएं हैं। वर्तमान में जिले में पर्यावरण संरक्षण पर काम कर रही ईआरडीएस फाउंडेशन संस्थान के साथ मिलकर इस प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियों की नर्सरी भी तैयार करी जा रही है, जिससे आगामी सीजन तक स्थानीय किसान अपने लिए पौधे संरक्षित कर सकेंगे।
एक्सपर्ट व्यू : 30 वनस्पतियां चिह्नित
थार के मरुस्थल में विलुप्तप्राय: वनस्पतियों पर पिछले कुछ समय से सर्वे किया जा रहा है। अभी 30 प्रजातियों को चिन्हित किया है, जिनको बीज, कंद, मूल आदि से नर्सरी में तैयार किया जाएगा। आने वाले समय में स्थानीय समुदाय में इनके संरक्षण बारे में जागरुकता कार्यक्रम भी चलाया जाएगा।
-डॉ ममता रावत, वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं निदेशक, ईआरडीएस फाउंडेशन
Published on:
08 Nov 2020 10:58 pm
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