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स्वच्छता के संदेश के साथ हिमालय से आते है गिद्ध, शीत ऋतु में करेंगे प्रवास

- वन विभाग ने बढ़ाई गश्त, गिद्धों के लिए कई खतरे भी

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स्वच्छता के संदेश के साथ हिमालय से आते है गिद्ध, शीत ऋतु में करेंगे प्रवास

स्वच्छता के संदेश के साथ हिमालय से आते है गिद्ध, शीत ऋतु में करेंगे प्रवास

पोकरण/लाठी. देशभर में बीते 9 वर्षों से स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है और सरकार की ओर से आमजन को जागरुक करने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे है। ऐसे ही गिद्ध की कई प्रजातियां अब शीत ऋतु भारत-पाक सीमा से सटे सरहदी जिले में प्रवास करेगी। ये गिद्ध भी यहां स्वच्छता का संदेश देते है। हिमालय के उस पार से आने वाले दुर्लभ प्रजाति के गिद्धों की आवक अब कुछ ही दिनों में शुरू होने वाली है। मध्य एशिया, यूरोप, तिब्बत आदि शीत प्रदेशों से पश्चिमी राजस्थान की तरफ आने वाले दुर्लभ प्रजाति के गिद्धों का वन्यजीवप्रेमी भी इंतजार कर रहे है। गुलाबी ठंड की शुरुआत के साथ उनके आने का दौर शुरू हो जाएगा। गिद्धों की आवक को देखते हुए वन विभाग ने भी तैयारी शुरू करते हुए गश्त बढ़ा दी है। गौरतलब है कि प्रतिवर्ष अक्टूबर माह के दूसरे पखवाड़े से नवम्बर माह की शुरुआत में दुर्लभ प्रजाति के गिद्धों का पहला जत्था यहां पहुंचता है। मध्य एशिया, यूरोप, तिब्बत सहित अन्य प्रदेश, जहां अक्टूबर माह में गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है, वहां से दुर्लभ प्रजाति के गिद्ध उड़ान भरकर पश्चिमी राजस्थान में पहुंच जाते है। अक्टूबर से फरवरी माह के अंतिम सप्ताह तक उनके लिए यहां अनुकूल शीत का मौसम रहता है।
पशु बाहुल्य क्षेत्र में डालते है डेरा
गिद्ध पशु बाहुल्य क्षेत्रों में ही अपना डेरा डालते है, ताकि उन्हें भोजन की तलाश के लिए भटकना नहीं पड़े। जैसलमेर जिले में कई जगहों पर पशु बाहुल्य क्षेत्रों में ये गिद्ध अपना डेरा डालते है। विशेष रूप से प्रवासी गिद्ध ओढ़ाणिया, लाठी, भादरिया, लोहटा, खेतोलाई गांव के आसपास अपना पड़ाव जमाते है, ताकि यहां मृत पशु और भोजन मिल सकेे।
ये प्रजाति पहुंचती है यहां
क्षेत्र में प्रतिवर्ष ग्रिफान, सिनेरियस, यूरेशियन, इजिप्शियन गिद्धों के झुंड प्रवास पर आते है। इसी प्रकार सफेद पीठ वाला गिद्ध, भारतीय गिद्ध, लाल सिर वाला गिद्ध स्थानीय की श्रेणी में आते है और इनकी प्रजाति गंभीर रूप से खतरे में है।
गिद्धों के लिए ये खतरा भी
जैसलमेर जिले के ग्रामीणों का मुख्य व्यवसाय कृषि व पशुपालन है। फसलों को कीटों व रोगों से बचाने के लिए किसान पेस्टीसाइड व डाइक्लोफेनिक का उपयोग करते है। इन्हीं फसलों को खाने से पेस्टीसाइड पशुओं में पहुंचता है और मृत पशु को खाने से गिद्धों में पेस्टीसाइड प्रवेश कर जाता है। जिससे शारीरिक नुकसान होता है और गिद्धों की प्रजनन क्षमता कम हो जाती है। ऐसे में गिद्ध संकटग्रस्त प्रजाति में जाने लगा है। हालांकि पूर्व में पशुओं में लगाए जाने वाले दर्द निवारक डाइक्लोफेनिक इंजेक्शन केन्द्र सरकार की ओर से बंद करवा दिए गए है, जिससे गिद्धों की मौत कुछ कम हुई है, लेकिन पेस्टीसाइड का आज भी उपयोग हो रहा है। इसके अलावा रेल पटरियों के आसपास मृत पशुओं को खाने के दौरान यहां सुरक्षा के इंतजाम नहीं होने से रेलों की चपेट में आने की आशंका रहती है। जिससे पूर्व में भी कई बार हादसे हो चुके है।
बढ़ाई गई है गश्त
शीतकाल के दौरान प्रवासी गिद्ध क्षेत्र में डेरा डालते है। कुछ ही दिनों में आवक शुरू होने वाली है। ऐसे में क्षेत्र में गश्त बढ़ा दी गई है। रेल पटरियों के आसपास व अन्य जगहों पर कार्मिकों की ओर से अतिरिक्त गश्त की जा रही है। पेस्टीसाइड के उपयोग को कम करने को लेकर किसानों को पाबंद करने के लिए प्रशासन को पत्र लिखा जाएगा।
- जगदीश विश्रोई, क्षेत्रीय वन अधिकारी वन विभाग, लाठी
सुरक्षा के हो पुख्ता प्रबंध
संकटग्रस्त प्रजाति के गिद्ध प्रतिवर्ष लाठी क्षेत्र में पहुंचते है। मृत पशुओं के मांस व अवशेष खाकर सफाई करते है। जिससे इन्हें सफाईकर्मी भी कहा जाता है। पूर्व में रेल की चपेट में आने से हुए हादसों में कई गिद्धों की मौत हो चुकी है। प्रशासन व वन विभाग को इनकी सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध करने चाहिए।
- राधेश्याम पेमाणी, वन्यजीवप्रेमी, धोलिया