दरअसल नवलगढ़ के रामदेवजी मंदिर में रामदेवजी महाराज के घोड़े की समाधि है जिसका नाम लीलण था। हर साल भाद्रपद शुक्ल पक्ष की नवमी की शाम को नवलगढ़ के राज परिवार के रूप निवास पैलेस से करीब 3 किलोमीटर चलकर घोड़ा रामदेवजी के मंदिर में आता है और यहां धोक लगाता है। घोड़े के साथ कई सेवक सफेद ध्वज लेकर चलते हैं। इस ध्वज को मंदिर के शिखर पर लगाया जाता है। मंदिर में घोड़ा आने की यह परंपरा करीब 249 साल से चली आ रही है। मेले के दौरान करीब 5-7 लाख श्रद्धालु बाबा रामसा पीर के मंदिर में धोक लगाते हैं।
यूं शुरू हुई परम्परा
नवलगढ़ राजघराने के रेकॉर्ड के अनुसार सन् 1774 में दिल्ली सल्तनत के आदेश पर मिर्जा राजा नजफकुली ने तत्कालीन जागीरदार नवलसिंह शेखावत सहित पंचपाना के जागीरदारों को धोखे से नजरबंद कर दिया था। तब नवलसिंह की पत्नी उदावती कंवर ने बाबा रामदेवजी से अपने पति के सुरक्षित लौटने की प्रार्थना की। मान्यता है कि उस वक्त रामदेवजी का घोड़ा नवलसिंह के पास पहुंचा। नवलगढ़ की दक्षिण दिशा में स्थित जोहड़ में आकर नवलगढ़ जब घोड़े से उतरे तो उन्हें रामदेवजी के दर्शन हुए। इसके बाद रूप निवास पैलेस से घोड़े के साथ उदावती देवी सन् 1775 में रामदेवजी मंदिर में धोक लगाने आई थीं। तब से यह परम्परा चलती आ रही है।