दिल्ली विवि में भू-विज्ञान विभाग के प्रो जीवीआर प्रसाद और प्रियदर्शिनी राजकुमारी ने यह जीवाश्म खोजे हैं। शार्क का पूरा कंकाल नहीं मिला है क्योंकि वह कार्टिलेज का बना होने के कारण लंबे समय तक संरक्षित नहीं रह सकता। ऐसे जीवाश्म अफ्रीकी देशों मोरक्को, नाइजीरिया, नाइजर, यूरोप के बेल्जियम, इंग्लैंड और फ्रंास से बरामद हुए शार्क के जीवाश्म से समानता रखते हैं। बाड़मेर-जैसलमेर में वैज्ञानिकों को आदिकालीन व्हेल, अन्य छोटी मछलियों के दांत, मगरमच्छ के दांत और कछुए की हड्डियों जैसे दुर्लभ जीवाश्म पहले भी प्राप्त हो चुके हैं।
बाड़मेर के ही गिरल माइन क्षेत्र में 65 से लेकर 58 मिलियन वर्ष के दौरान जीवित रहे पौधों के जीवाश्म भी मिले हैं जो इसके लैगून होने को प्रमाणित करते हैं। जेएनवीयू के शोधकर्ताओं को यहां टेरिडोफाइटा के 13 पादप, 34 एंजियोस्पर्म, दो जिम्नोस्पर्म, 19 कवक और एक शैवाल की प्रजाति की खोज की। यहां एक बीज पत्री और द्विबीजपत्री दोनों बड़े पादप के परागकण भी मिले हैं जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यहां मैंग्रोव जैसी घनी वनस्पति हुआ करती थी।
‘दिल्ली विवि ने पहली बार शार्क जैसी बड़ी मछलियों के जीवाश्म खोजे हैं, जबकि हमने छोटी मछलियों के जीवाश्म खोजे थे। क्रिटेशियस व पीलियोसीन युग के दौरान फतेहगढ़ तक समुद्र का छिछला किनारा था। समुद्र गुजरात में हुआ करता था। यहां ज्वालामुखी क्रियाएं भी खूब हुई।’