जब बालक 12 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेता है तो उसका यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है। इसे जनेऊ संस्कार भी कहा जाता है क्योंकि इसमें जनेऊ धारण करवाई जाती है। यह समारोह भी विवाह समारोह की तरह भव्य होता है। इसमें बालक का शुद्धिकरण कर मुंडन किया जाता है। हवन में आहुति प्रदान करते हुए मां गायत्री से उसे ब्रह्म तत्व प्राप्त हो ऐसा वरदान मांगा जाता है। प्राचीन समय में बालक को लंगोट पहनाया जाता था। समय के साथ यहां थोड़ा बदलाव यह आ गया है कि लंगोट की जगह उसे पीतांबर पहनाया जाता है। हवन में आहुति के बाद काशी प्रस्थान के लिए बालक को मुख्य स्थान पर ब्राह्मण वेशभूषा में एक हाथ में दंड जिसमें उसके लिए खाद्य सामग्री जिसमें खाजा और मिष्ठान डाले जाते हैं। उद्देश्य यह है कि बालक काशी तक जाएगा तो रास्ते में उसे भूख लगेगी और वह उस सामग्री को खा सकता है।
हामी के बाद बालक दौड़ कर काशी के लिए प्रस्थान करता है। इस दौरान ननिहाल पक्ष के मामा या मामा के बेटे भाइयों द्वारा उसको पकड़ कर फिर मनाया जाता है। फिर उसे नव वस्त्र और आभूषण प्रदान कर धूमधाम से घोड़े पर बिठाकर के वापस घर लाया जाता है।