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सिमटने लगा है सालावास का दरी उद्योग

locationजोधपुरPublished: May 06, 2019 06:40:44 pm

Submitted by:

Anil Sharma

दुनिया में अपनी पहचान बना चुका सालावास का दरी उद्योग बुनकरों के लिए लाभदायक नहीं रहने के चलते सिमटने लगा है। करीबन 15 साल पहले तक यहां के करीब 100 से अधिक घरों में दरी बुनाई का काम होता था। अब यह सिमट कर केवल दस घरों तक ही सीमित हो गया है।

Salawas Durry Industry is in crises

सिमटने लगा है सालावास का दरी उद्योग

धुंधाड़ा. दुनिया में अपनी पहचान बना चुका सालावास का दरी उद्योग बुनकरों के लिए लाभदायक नहीं रहने के चलते सिमटने लगा है। करीबन 15 साल पहले तक यहां के करीब 100 से अधिक घरों में दरी बुनाई का काम होता था। अब यह सिमट कर केवल दस घरों तक ही सीमित हो गया है।
किसी जमाने में अपने घरों में उपयोग के लिए बुनने से शुरू हुई सालावास की दरी ने समय के साथ अपना बाजार बनाया। विदेशी पर्यटकों को तो ऐसी भायी कि न केवल यह विदेशों में निर्यात की जाने लगी बल्कि इसने पूरी दुनिया में सालावास की पहचान बनाई। लंबे अरसे तक बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक दरी बुनने की कला को देखने के लिए यहां आते रहे है और आर्टिजन से सीधे दरी खरीदकर ले जाते है। इसमें सारा मुनाफा आर्टिजन को मिलता है। अच्छी कमाई ने जब बिचौलियों का ध्यान इस उद्योग की ओर खींचा तब से तस्वीर बदलने लगी। आज यह हालत है कि ज्यादातार दरियां इन बिचौलियों यानि कथित व्यापारियों के माध्यम से देसी व विदेशी बाजार में बिकती है। इससे यहां आने वाले विदेशी पर्यटकों संख्या भी कम होती चली गई। बुनकरों का मुनाफा जब घटने लगा और उन्हें यह घाटे का सौदा नजर आया तो धीरे-धीरे बुनकर इससे विमुख होने लगे।
लागत का अंदाजा मुश्किल-

सालावास की दरी ज्यादातार सूती धागे से ही बनाई जाती है, मगर विशेष मांग पर यहां ऊनी व सिल्क के धागे से भी बनाई जाती है। तीन गुणा पांच फीट की एक दरी को बनाने में करीबन पन्द्रह दिन का मानव श्रम लगता है। धागे की लागत नगण्य होती है। मानव श्रम ज्यादा होने से लागत का अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। बुनकर यह सोचकर कि अपनी मेहनत बेकार न जाए वह उसे बेचने की जल्दी में रहता है। इसी का फायदा बिचौलिये उठाते है।
पंजा दरी का नाम मिला-

सालावास की दरी लकड़ी व लोहे के हाथ से बने लूम पर बुनी जाती है। ज्यों-ज्यों बुनाई के धागे की पंक्ति पूरी होती है उसे लकड़ी के बने पंजे से आगे खिसकाया जाता है। पंजे के उपयोग के कारण इसे पंजा दरी भी कहते है। प्राचीन भारत पुस्तक के लेखक पप्पूसिंह प्रजापत बताते है कि कई प्रतियोगिता परीक्षाओं में सालावास गांव की दरी बुनाई को लेकर सवाल पूछे जाते है।
सरकार का प्रोत्साहन नहीं-

कहने को तो सरकार की तरफ से बुनकरों के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही है, लेकिन सालावास में किसी तरह की योजना नजर नहीं आती है। यदि इन योजनाओं का क्रियान्वयन हो तो आर्टिजन को फायदा मिलेगा और सालावास का यह सिमटता दरी उद्योग फिर से परवान चढऩे लगेगा।
क्या कहते हैं बुनकर-

हमारी द्वारा बनाई गई दरी की कला एवं डिजायन विदेशी पर्यटकों को आज भी लुभाती है, लेकिन क्या करें हमें पूरा लाभ नहीं मिलने से यह व्यवसाय धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
-केसाराम भोबरिया, बुनकर

आर्टिजन एक्जीबिशन में भाग लेने के लिए पहले सरकार की तरफ से आमंत्रण व सुविधाएं मिलती थी। भाग लेने पर हमें उसका फायदा भी मिलता था। पिछले दस सालों से आर्टिजन एक्जीबिशन की कोई सूचना तक नहीं मिली है।
-रूपराज प्रजापत, बुनकर

बुनकरों को सरकार की योजनाओं का लाभ न मिलने से गांव में दरी बुनाई का काम लुप्त हो रहा है। बड़े व्यापारियों के खरीदने से भी बुनकरों को नुकसान हो रहा है।
-मालाराम मुण्डेल, बुनकर

आजकल मशीनों से रेडीमेड दरी की वजह से भी बुनकरों को नुक्सान हो रहा है। सरकार को बुनकरों की मदद करनी चाहिए।

-चेतनलाल प्रजापत, बुनकर व पूर्व सरपंच

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