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ज़ोधपुर में होली पर ‘राणा निकालने की रही अनूठी परंपरा

locationजोधपुरPublished: Mar 24, 2021 12:09:32 pm

Submitted by:

Nandkishor Sharma

 
शहर के मंदिरों व मारवाड़ में आज भी गाई जाती है जोधपुर के महाराजा मानसिंह रचित होरिया

ज़ोधपुर में होली पर 'राणाÓ निकालने की रही अनूठी परंपरा

ज़ोधपुर में होली पर ‘राणाÓ निकालने की रही अनूठी परंपरा

जोधपुर. होली का त्यौहार मारवाड़ की राजधानी रहे जोधपुर में पीढिय़ों से परम्पराओं के साथ बड़े उत्साह से मनाया जाता रहा है। जोधपुर राजघराने में भी इस सांस्कृतिक त्यौहार का एक मर्यादित साहित्यिक सम्बध रहा है। राजनीतिक उथल-पुथल, राजमहलों के षडय़न्त्रों भरी चालों के बावजूद भी होली के समय गढ़ किलों में एक सुरमयी रंगीला माहौल बन जाता था। महाराजा तख्तसिंह के समय में होली किले के मोती महल चौकी में खेली जाती थी। राज की तरफ से आमजन को रंग बांटा जाता और चौक में रंग के कड़ाव भराये जाते थे। पीतल की पिचकारियों की व्यवस्था रानियों और महारानियों के लिए होती थी। होली के रंग खेलने के लिए महिलाओं व पुरुषों के लिए अलग-अलग व्यवस्था होती थी। होली पर फाग की सवारी जब शहर में निकलती तो शहरवासी चंग पर ‘धूंसाÓ गाते और फाग खेलकर महाराजा का स्वागत करते थे।
इसी स्वरूप के कारण कहलाए ‘रसीलेराजÓ

महाराजा मानसिंह ने होली को साहित्य की नजरों से परखा और होली से संबंधित कई फाग व होरिया लिखी जो आज भी जोधपुर ही नहीं मारवाड़ के विभिन्न हिस्सों में चाव से गाई जाती है। महाराजा मानसिंह के इसी स्वरूप के कारण उन्हें ‘रसीलेराजÓ भी कहा जाता था। महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश शोध केन्द्र के सहायक निदेशक डॉ. महेन्द्रसिंह तंवर के अनुसार महाराजा मानसिंह के समय विक्रम संवत 1879 में होली मनाने का उल्लेख मिलता है जिसमें होली के खेल के साथ-साथ महारानियां, रानियां महाराजा को मदिरा का प्याला पेश करती और मोहरों, गिन्नियों एवं चांदी के रूपयों की न्यौछावर होती जो वहां दासियों को दी जाती। जनाना ड्योढ़ी की दासियां महारानी के पांव के अंगूठे के नाखून पर रंग लगाकर होली की मर्यादा निभाती।
मारवाड़ में ‘राणाÓ की सवारी का कारण
हकीकत बहियों के अनुसार होली के दिन जोधपुर में किले से ‘राणाÓ निकालने की प्रथा रही थी। राव रिड़मल की मेवाड़ में षडय़ंत्र से हत्या कर दी गई थी। इस कारण मारवाड़ के लोग मेवाड़ से नाराज थे तथा उनके प्रति असंतोष था। इसी कारण होली के अवसर पर किले से ‘राणाÓ की सवारी निकाली जाने लगी और लोग उस पर असंतोष को प्रकट करने के लिए सात कंकर अपने और अपने बच्चों के सिर पर अंवार कर ‘राणाÓ पर फैंकते थे। ‘राणाÓ निकालने की प्रथा महाराजा विजयसिंहजी से लेकर महाराजा जसवंतसिंहजी द्वितीय तक थी तथा महाराजा उम्मेदसिंह के समय की बहियों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है। वि.सं. 1970 तक की बहियों में ‘राणाÓ निकालने के उल्लेख मिलते हैं, परन्तु उसके बाद ‘राणाÓ निकलना कब और किसने बंद करवाया इसका उल्लेख नहीं है।

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