कृष्णा कुमारी ही क्यों?
एक दोस्त ने मुझसे यह सहज सवाल पूछा था, जब मैंने उन्हें बताया कि मेरी पहली बुक उनके जीवन की घटनाएं एक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करेगी। सवाल का जवाब ज्यादा कठिन नहीं था। मारवाड़ के लिए कृष्णाकुमारी जी ही वो शख्सियत थीं, जिन्होंने इतिहास के तीन कालखंडों को प्रत्यक्ष अनुभव किया, उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
एक दोस्त ने मुझसे यह सहज सवाल पूछा था, जब मैंने उन्हें बताया कि मेरी पहली बुक उनके जीवन की घटनाएं एक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करेगी। सवाल का जवाब ज्यादा कठिन नहीं था। मारवाड़ के लिए कृष्णाकुमारी जी ही वो शख्सियत थीं, जिन्होंने इतिहास के तीन कालखंडों को प्रत्यक्ष अनुभव किया, उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
गुजरात क्षेत्र के राजपरिवार से मारवाड़ तक का सफर जहां राजशाही युग में बीता, वहीं…हनवंत सिंह जी के साथ वे उस कालखंड की गवाह भी बनीं जब, देश राजशाही से लोकतंत्र की और संक्रमण काल से गुजर रहा था। वी के मेनन की चालाकियां और तत्कालीन कथित स्वतंत्रता सेनानियों के पैंतरे कृष्णाकुमारी ने न केवल महसूस किए, बल्कि नई परिस्थितियों के हिसाब से खुद को तैयार भी किया। लोकतंत्र का उत्सव जब देश ने मनाया, तो मारवाड़ उन गिने-चुने राजपरिवारों में से था, जिसने इस नई कसौटी पर खुद को कसने के लिए चुनाव मैदान में उतरने की हिम्मत दिखाई।
हनवंतसिंह जी के असामयिक निधन से जो खाली स्थान पैदा हुआ, उसमें पूर्व राजमाता कृष्णाकुमारी ने जो शालीन और संयत रूप दिखाया, उसी का परिणाम था कि मारवाड़ की जनता ने उन्हें चुनावों में भी विजय दिलाई। उनके ममतामयी स्वभाव का परिणाम है कि आज जब देश के ज्यादातर राज्यों में पूर्व राजघराने बैकग्राउंड में जा चुके हैं, जोधपुर में लगाव और आदर के साथ उनसे जुड़ाव बना हुआ है।
मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे उनसे मिलने, उनसे बात करने, उनके जीवन को इतने नजदीक से देखने और महसूस करने का अवसर मिला। द रॉयल ब्ल्यू लिखने के दौरान कई बार ऐसे एक्सपीरियंस हुए, जिनसे लगा कि मैं टाइम मशीन में सवार कई दशक पहले की घटनाओं को मेरी आंखों के सामने जीवंत देख रहा हूं…मानो मेरे सामने ही घंटाघर के मैदान में वो जनसभा चल रही है, जहां राजघराने की कृष्णा परदे से निकल कर अपनी प्यारी प्रजा से रूबरू हैं। समय बदलने से संबंध नहीं बदला करते! वे कहती हैं…और भीड़ नारों से जोधपुर को गुंजा देती है।
नश्वर शरीर भले ही माँ चामुंडा में विलीन होने की यात्रा पर निकल चुका हो, मारवाड़ से कृष्णाकुमारी जी को अलग करना उतना ही नामुमकिन रहेगा जितना उनसे मारवाड़ को अलग करना रहा। उन्हें श्रद्धांजलि :
मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे उनसे मिलने, उनसे बात करने, उनके जीवन को इतने नजदीक से देखने और महसूस करने का अवसर मिला। द रॉयल ब्ल्यू लिखने के दौरान कई बार ऐसे एक्सपीरियंस हुए, जिनसे लगा कि मैं टाइम मशीन में सवार कई दशक पहले की घटनाओं को मेरी आंखों के सामने जीवंत देख रहा हूं…मानो मेरे सामने ही घंटाघर के मैदान में वो जनसभा चल रही है, जहां राजघराने की कृष्णा परदे से निकल कर अपनी प्यारी प्रजा से रूबरू हैं। समय बदलने से संबंध नहीं बदला करते! वे कहती हैं…और भीड़ नारों से जोधपुर को गुंजा देती है।
नश्वर शरीर भले ही माँ चामुंडा में विलीन होने की यात्रा पर निकल चुका हो, मारवाड़ से कृष्णाकुमारी जी को अलग करना उतना ही नामुमकिन रहेगा जितना उनसे मारवाड़ को अलग करना रहा। उन्हें श्रद्धांजलि :
———-
पूर्व राजमाता ने कहा – समय बदला, सम्बंध नहीं बदले
(द रॉयल ब्ल्यू पुस्तक के अंश )
1971 की शुरूआत। देश में पांचवें आम चुनावों की आहट सुनाई दे रही थी। चौथे चुनावों से ये चुनाव काफी अलग थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी… जो चौथे आम चुनावों में गूंगी गुडिय़ा के नाम से उपहास का पात्र बनती थीं, वो अब सता और संगठन पर अपनी पकड़ कायम कर चुकी थीं। कांग्रेस का दबदबा एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में बढ़ चुका था।
नारों और जुमलों की जुगाली शुरू हो चुकी थी। विपक्षी दल एकजुट हो कर इन्दिरा हटाओ का नारा बुलन्द कर रहे थे। वहीं बड़ी चतुराई से इंदिरा गांधी ने यह घोषणा कर दी थी कि विपक्षी दल भले ही संकुचित सोच के साथ व्यक्तिगत हमला करें और इंदिरा हटाओ का नारा बुलंद करें, लेकिन वो देश में गरीबों का उद्धार करेंगी और इसलिए उनका चुनावी नारा होगा-गरीबी हटाओ।
दरअसल उन दिनों सीमा पार से हो रही घुसपैठ और सुस्त औद्योगिकीकरण के चलते देश की सरकार भी आर्थिक तंगी से गुजर रही थी। हर तरह से उन उपायों पर गौर किया जा रहा था जिनसे पैसा बचाने का उपक्रम हो सके। कांग्रेसी नेताओं के 1947 के वादों के पूरा ना होने के कारण पूर्व राजघरानों से पार्टी के संबंध खराब हो चुके थे।
यही कारण था कि बचत के कई तरीकों में से एक तरीका जो अमल में लाया जाना प्रस्तावित था वो सीधा-सीधा पूर्व राजघरानों को प्रभावित करता था। सरकार इन घरानों को दिए जाने वाले प्रीवी पर्स- हाथ खर्च को खत्म करने के लिए संविधान का 26 वां संशोधन ला रही थी।
‘यह विश्वासघात है। हम सभी से जो वायदे नेहरू और पटेल ने किये थे…ये उससे बिल्कुल विपरीत है। लोकतंत्र और एकीकरण के नाम पर पहले ही प्रजा को ठगा गया… टैक्स बेतहाशा बढ़ा दिए गए और अब हम! कांग्रेस इस तरीके से हम सभी को सड़क पर लाने की साजिश कर रही है,’ राजदादी बदनकुंवर ने अपने विश्वासपात्रों से बातचीत के दौरान चिंता प्रकट की।
आप सही फरमा रही है राजदादी जी। गुजरात, हैदराबाद, हिमाचल और हरियाणा से सूचना मिली है। सभी पूर्व राजघरानों में इसी तरह का रोष है, एक सरदार ने अपनी सहमति जताई।
आप लोग स्वर्गीय महाराजा हनवंतसिंह जी की बात याद करो! उन्होंने कहा था कि अगर राजा- महाराजाओं को अपनी शक्ति, अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो जनता की-वोटों की ताकत से ही अपने आप को पुनर्जीवित करना होगा, दूसरे सरदार ने कहा।
लेकिन मारवाड़ में सबसे प्रतिष्ठा की सीट जोधपुर है। हम अगर वहाँ भी कांग्रेस को चुनौती नहीं दे सके तो फिर कहीं भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। मुझे पता चला है कि लगभग सभी बड़े राजघराने अपने उम्मीदवार कांग्रेस के सामने उतारने का मानस बना रहे हैं, राजदादी ने कहा।
लेकिन मम्मा! हमारे पास कहाँ है उम्मीदवार जो कांग्रेस की आंधी का मुकाबला कर सके! राजमाता कृष्णाकुमारी ने स्वाभाविक प्रश्न किया।
तुम! तुम लड़ोगी इस बार का चुनाव। उस सीट से जहाँ हनवंत सिंह जीते पर अपनी जीत देख नहीं पाए। तैयार हो जाओ। हमें गिरदीकोट में एक आम सभा करनी होगी। राजपूतनियाँ हर चुनौती के लिये तैयार रहती हैं। तुम्हें उस सभा में भाषण देना होगा।
राजमाता ने अपनी सास से यह निर्णय भरा आदेश सुन कर गर्दन घुमाई तो सामने दीवार पर मुस्करा रहे हनवंतसिंह की तस्वीर नजर आई।
मार्च 1971 में चुनाव से पहले हुई सबसे बड़ी आमसभा निर्दलीय प्रत्याशी कृष्णाकुमारी की थी। एक बड़े सांकेतिक परिवर्तन को मारवाड़ के लाखों लोगों ने महसूस किया। शायद पहली बार परदे से सार्वजनिक सभा में आई राजमाता ने जब कहा- समय बदलने से क्या संबंध बदल जाते हैं….!
‘लाखों हाथ नहीं! नहीं!! नहीं बदलते संबंध… और ‘जय-जय’ के नारों के साथ हवा में उठ गए और सबसे मजबूत दिखने वाली कांग्रेस ने मारवाड़ में अपनी नींव हिलती महसूस की।
(अयोध्याप्रसाद गौड़ की पुस्तक द रॉयल ब्ल्यू से साभार)
पूर्व राजमाता ने कहा – समय बदला, सम्बंध नहीं बदले
(द रॉयल ब्ल्यू पुस्तक के अंश )
1971 की शुरूआत। देश में पांचवें आम चुनावों की आहट सुनाई दे रही थी। चौथे चुनावों से ये चुनाव काफी अलग थे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी… जो चौथे आम चुनावों में गूंगी गुडिय़ा के नाम से उपहास का पात्र बनती थीं, वो अब सता और संगठन पर अपनी पकड़ कायम कर चुकी थीं। कांग्रेस का दबदबा एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में बढ़ चुका था।
नारों और जुमलों की जुगाली शुरू हो चुकी थी। विपक्षी दल एकजुट हो कर इन्दिरा हटाओ का नारा बुलन्द कर रहे थे। वहीं बड़ी चतुराई से इंदिरा गांधी ने यह घोषणा कर दी थी कि विपक्षी दल भले ही संकुचित सोच के साथ व्यक्तिगत हमला करें और इंदिरा हटाओ का नारा बुलंद करें, लेकिन वो देश में गरीबों का उद्धार करेंगी और इसलिए उनका चुनावी नारा होगा-गरीबी हटाओ।
दरअसल उन दिनों सीमा पार से हो रही घुसपैठ और सुस्त औद्योगिकीकरण के चलते देश की सरकार भी आर्थिक तंगी से गुजर रही थी। हर तरह से उन उपायों पर गौर किया जा रहा था जिनसे पैसा बचाने का उपक्रम हो सके। कांग्रेसी नेताओं के 1947 के वादों के पूरा ना होने के कारण पूर्व राजघरानों से पार्टी के संबंध खराब हो चुके थे।
यही कारण था कि बचत के कई तरीकों में से एक तरीका जो अमल में लाया जाना प्रस्तावित था वो सीधा-सीधा पूर्व राजघरानों को प्रभावित करता था। सरकार इन घरानों को दिए जाने वाले प्रीवी पर्स- हाथ खर्च को खत्म करने के लिए संविधान का 26 वां संशोधन ला रही थी।
‘यह विश्वासघात है। हम सभी से जो वायदे नेहरू और पटेल ने किये थे…ये उससे बिल्कुल विपरीत है। लोकतंत्र और एकीकरण के नाम पर पहले ही प्रजा को ठगा गया… टैक्स बेतहाशा बढ़ा दिए गए और अब हम! कांग्रेस इस तरीके से हम सभी को सड़क पर लाने की साजिश कर रही है,’ राजदादी बदनकुंवर ने अपने विश्वासपात्रों से बातचीत के दौरान चिंता प्रकट की।
आप सही फरमा रही है राजदादी जी। गुजरात, हैदराबाद, हिमाचल और हरियाणा से सूचना मिली है। सभी पूर्व राजघरानों में इसी तरह का रोष है, एक सरदार ने अपनी सहमति जताई।
आप लोग स्वर्गीय महाराजा हनवंतसिंह जी की बात याद करो! उन्होंने कहा था कि अगर राजा- महाराजाओं को अपनी शक्ति, अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो जनता की-वोटों की ताकत से ही अपने आप को पुनर्जीवित करना होगा, दूसरे सरदार ने कहा।
लेकिन मारवाड़ में सबसे प्रतिष्ठा की सीट जोधपुर है। हम अगर वहाँ भी कांग्रेस को चुनौती नहीं दे सके तो फिर कहीं भी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। मुझे पता चला है कि लगभग सभी बड़े राजघराने अपने उम्मीदवार कांग्रेस के सामने उतारने का मानस बना रहे हैं, राजदादी ने कहा।
लेकिन मम्मा! हमारे पास कहाँ है उम्मीदवार जो कांग्रेस की आंधी का मुकाबला कर सके! राजमाता कृष्णाकुमारी ने स्वाभाविक प्रश्न किया।
तुम! तुम लड़ोगी इस बार का चुनाव। उस सीट से जहाँ हनवंत सिंह जीते पर अपनी जीत देख नहीं पाए। तैयार हो जाओ। हमें गिरदीकोट में एक आम सभा करनी होगी। राजपूतनियाँ हर चुनौती के लिये तैयार रहती हैं। तुम्हें उस सभा में भाषण देना होगा।
राजमाता ने अपनी सास से यह निर्णय भरा आदेश सुन कर गर्दन घुमाई तो सामने दीवार पर मुस्करा रहे हनवंतसिंह की तस्वीर नजर आई।
मार्च 1971 में चुनाव से पहले हुई सबसे बड़ी आमसभा निर्दलीय प्रत्याशी कृष्णाकुमारी की थी। एक बड़े सांकेतिक परिवर्तन को मारवाड़ के लाखों लोगों ने महसूस किया। शायद पहली बार परदे से सार्वजनिक सभा में आई राजमाता ने जब कहा- समय बदलने से क्या संबंध बदल जाते हैं….!
‘लाखों हाथ नहीं! नहीं!! नहीं बदलते संबंध… और ‘जय-जय’ के नारों के साथ हवा में उठ गए और सबसे मजबूत दिखने वाली कांग्रेस ने मारवाड़ में अपनी नींव हिलती महसूस की।
(अयोध्याप्रसाद गौड़ की पुस्तक द रॉयल ब्ल्यू से साभार)