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कानपुर में महात्मा : अकेले खड़े रहे गांधीजी, किसी ने माला तक नहीं पहनाई

16 दिसंबर 1916 को पहली बार कानपुर आए थे मोहनदास करमचंद गांधी, उस वक्त लोगों ने सिर्फ बाल गंगाधर तिलक को पहचाना था

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आलोक पाण्डेय

कानपुर. क्रांतिकारियों के गढ़ अक्खड़ मिजाज शहर कानपुर की गली-गली में गांधीवादी विचारधारा समाई हुई है। इंकलाबी तेवरों के साथ-साथ बातचीत से रास्ता निकालने की सूझबूझ शहर को गांधी के तौर-तरीकों से मिली है। कानपुर शहर की माटी एक-दो मर्तबा नहीं, सात बार गांधी के माथे पर तिलक किया है। पहली मर्तबा तिलक के साये में, फिर खुद गांधी के वजूद के रूप में। तारीख की बात करें तो 16 दिसंबर 1916 की दोपहर। दिग्गज क्रांतिकारी और देश के बहुत बड़े नेता बाल गंगाधर तिलक के साथ ऊंची धोती, काले कोट के साथ गोल गुजराती टोपी लगाए एक नौजवान भी कानपुर के इंकलाबी तेवरों को देखने-समझने आया था। उस वक्त कानपुर का पुराना रेलवे स्टेशन तिलक के जयकारों से गूंज रहा था। लंबी काठी वाले नौजवान को किसी की तवज्जो नहीं मिली। ऐसी नीरस और उदास मुलाकात हुई थी महात्मा गांधी की कानपुर के साथ। … चार साल बाद गांधी फिर कानपुर आए, लेकिन वक्त बदल चुका था। अब बापू के स्वागत में स्टेशन पर 25 हजार लोगों की भीड़ थी। कानपुर की इंकलाबी माटी ने एक साधारण नौजवान को देश की आजादी की उम्मीद के रूप में महात्मा गांधी बनने की यात्रा को बेहद करीब से देखा है।

 

तिलक हाल की अशोक लाइब्रेरी में बापू का इतिहास

अगले वर्ष यानी 2 अक्टूबर 20१९ को महात्मा गांधी की जयंती के 150 वर्ष पूरे होंगे। समूचा हिंदुस्तान अपने राष्ट्रपिता -अपने बापू की स्मृतियों का स्मरण करने में जुटा है। चुनिंदा बुजुर्गो के संस्मरण के साथ-साथ सुनी और किताबों में दर्ज बातों का सिलसिला कानपुर से बापू से जुड़ाव का साक्षी है। 16 दिसंबर 1916 की तारीख से लेकर 22 जुलाई 1934 के दरम्यान महात्मा गांधी सात मर्तबा कानपुर आए। पहली बार अनजान चेहरे के रूप में, लेकिन प्रत्येक अगली यात्रा में प्रशंसकों का कारवां बढ़ता गया। आज जिस स्थान पर कानपुर रेलवे का अभियांत्रिकी विभाग है, कभी वहां कानपुर स्टेशन होता था। वर्ष 1859 से लेकर 1930 तक कानपुर सेंट्रल स्टेशन का वजूद नहीं था। पुराने कानपुर स्टेशन पर बाल गंगाधर तिलक के साथ आए मोहनदास करमचंद गांधी को सिर्फ कानपुर के महान क्रांतिकारी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने पहचाना था। शहर से अनजान गांधी को लेकर विद्यार्थी जी अपने साथ प्रताप प्रेस लेकर पहुंचे और रात्रि विश्राम किया। कुछ ऐसी ही पहली उदास मुलाकात हुई थी गांधी की कानपुर के साथ।

चार साल बाद आए और सिलसिला बन गया

बहरहाल, चार साल बाद ही इलाहाबाद से लौटते महात्मा गांधी कुछ वक्त के लिए कानपुर में ठहरे। इसी दौरान मेस्टन रोड पर स्वदेशी भंडार का उद्घाटन किया। कुछ महीने बाद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेडक़र लोगों को जोडऩे के मकस से गांधी फिर कानपुर आए। अब बापू के स्वागत में पुराना कानपुर स्टेशन पर 25 हजार लोग एकत्र थे। अपने भाषण से उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता और असहयोग आंदोलन को स्वदेशी की भावना से जोड़ा। ब्रिटिश व्यवस्था में पदों पर बैठे लोगों से पद छोडऩे का आग्रह किया। बापू के आग्रह पर मन्नीलाल अवस्थी ने केके कॉलेज के प्राचार्य और डॉ. मुरारीलाल रोहतगी ने कानपुर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट का पद छोड़ दिया था।। एक बरस के अंदर ही 8 अगस्त 1921 को खादी को आजादी के आंदोलन से जोडऩे की मंशा लेकर महात्मा गांधी फिर कानपुर की इंकलाबी माटी से मिले आए। अगले दिन यानी नौ अगस्त को मारवाड़ी विद्यालय में कपड़ा व्यापारियों ने उनका स्वागत किया। उन्होंने कहा था कि खादी आजादी के साथ ही आर्थिक लाभ भी दिलाएगी। इस यात्रा में बापू ने महिलाओं की एक सभा को भी संबोधित किया था।


सिर्फ डॉ. रोहतगी के बंगले में रुकते थे महात्मा गांधी

इसके बाद 23 दिसंबर 1925 को गांधी जी ने कानपुर में कांग्रेस के 40वें अधिवेशन में कांग्रेसियों को आजादी के आंदोलन की रूपरेखा समझाई। साथ ही सरोजनी नायडू को कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा। इसके बाद कानपुर को बापू के दीदार के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा। चार साल बाद 22 सितंबर 1929 को महात्मा गांधी शहर आए तो छात्रों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोडऩे की उम्मीद के साथ। डीएवी कॉलेज और क्राइस्ट चर्च कालेज में सभा का आयोजन किया और छात्रों को आत्मसंयम के साथ राष्ट्रीय आंदोलन से जुडऩे के लिए कहा। यहीं पहली बार गांधी जी ने हरिजन उत्थान का एजेंडा रखा। शहर की बापू से आखिरी मुलाकात की तारीख थी 22 जुलाई 1934…. इस यात्रा में महात्मा गांधी 26 जुलाई तक शहर में रहे और कांग्रेस के स्थानीय कार्यालय यानी तिलक हाल का उद्घाटन किया। इसी दौरान 30 हरिजन बस्तियों में लोगों से मिलने भी गए। एक बात और। बापू की शहर से जुड़ी स्मृतियां तो चप्पे-चप्पे पर हैं, लेकिन पहली बार प्रताप प्रेस में रात्रि विश्राम करने के बाद बापू जब भी शहर आए तो डॉ. जेएन रोहतगी के बंगले में ही ठहरे। बंगले का एक कमरा आज भी बापू की स्मृतियों को सहेजे हुए है।