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हरसूद .. एक जीता जागता शहर जो एक बांध के लिए बन गया इतिहास

देश के सबसे बड़े बांधों में से एक इंदिरा सागर बांध को बनाने में 13 साल पहले खंडवा जिले के 250 गांव डूब गए, पर अकेले हरसूद यह बताता है कि एक जीता जागता शहर कैसे खत्म होता है..

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Rajiv Jain

Jun 30, 2017

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खंडवा. खंडवा जिला 30 जून 2004 का दिन कभी नहीं भूल पाएगा। इसे याद करके आज भी जेहन में दर्द उभर आता है। 13 साल बाद भी कसक बाकी है। हंसते-खेलते और उत्साह-ऊर्जा से लबरेज हरसूद सहित 249 गांवों की आहूति देकर इंदिरा सागर बांध के रूप में देश को अथाह जलराशि उपलब्ध कराई, दूसरों के लिए बिजली और पानी का इंतजाम किया। पर विस्थापितों को सुनहरे कल और अच्छे दिनों के जो सपने दिखाकर अपनी मातृभूमि से तो हटाया, उनमें से कई वायदे और आश्वासन आज भी सिरे नहीं चढ़े। 5600 परिवार आज भी पहले से कमतर जीवन जीने को मजबूर हैं। यह कहानी आज इसलिए फिर सामयिक है कि निमाड़ के दो जिले खरगोन और बड़वानी इन दिनों फिर 13 पुराना इतिहास दोहराने जा रहे हैं। 31 जुलाई को सरदार सरोवर बांध के गेट बंद होंगे और यहां के 61 गांव पानी में समां जाएंगे। समय इशारा कर रहा है कि जिम्मेदार वो गलतियां या कमियां समय रहते दूर कर लें जो हरसूद के विस्थापन के समय प्रशासनिक नाकामियों की वजह से हो गईं।
13 दीपक लेकर 13 पंडित करेंगे आरती
हरसूद की तेरहवीं बरसी पर पुराने हरसूद स्थित एकमात्र खेड़ापति हनुमान मंदिर पर पहुंचकर विस्थापित संघ के लोग पूजा-अर्चना करेंगे और नए हरसूद की समृद्धि के लिए 13 विद्वान पंडित 13 दीपक जलाकर मंत्रोच्चार के साथ पूजा-पाठ करेंगे। भारतीय धर्म एवं संस्कृति में तेरहवीं का विशेष महत्व होता है। दिवंगत एवं अतृप्त आत्माओं की शांति के लिए भी त्रयोदशी तिथि को शुभ माना गया है। हरसूद विस्थापित संघ ने मुख्यमंत्री सहित सभी 13 विभाग प्रमुखों को तेरहवीं के इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है। संघ के अनुराग बंसल व चंद्रकुमार सांड ने बताया 30 जून सुबह 10 बजे पुराने हरसूद स्थित खेड़ापति मंदिर पर पहुंचकर पूजा-पाठ करेंगे।


1989 में लिया गया था संकल्प
हरसूद के विस्थापन की लड़ाई तो 80 के दशक में शुरू हो गई, लेकिन 1989 में आन्दोलन ने बड़ा रूप ले लिया। हरसूद शहर में एक बड़ी सभा हुई, जिसमें बाबा आम्टे, शबाना आजमी, मेधा पाटकर जैसी हस्तियां वहां आर्इं और इस शहर को डूबने न देने का संकल्प लिया, लेकिन यह संकल्प किसी काम नहीं आया और शहर को डुबो दिया गया। वहां खड़ा स्तंभ आज भी हरसूदवासियों को संकल्प और हकीकत को याद दिला देता है। इस स्तंभ के नीचे एल्युमीनियम के बॉक्स में हरसूद का लिखित इतिहास, कुछ पात्र और अन्य सामग्री भी दफन कीं।

मुआवजा नहीं मिला तो नहीं हटे भगवान
हरसूद के किस्से भी अजीबो-गरीब हैं। इसमें मंदिर, मस्जिद तक का मुआवजा दिया गया। हरसूद स्थित थाने वाले बाबा कहे जाने वाले भगवान भोलेनाथ का मंदिर आज भी खड़ा है। इस मंदिर के विस्थापित न होने ही वजह मुआवजा नहीं मिला है। आज भी यह मंदिर साल के आठ माह डूब में रहता है, जबकि उसका शिखर हमेशा दिखाई देता है।

एक गांव का मात्र 4.60 करोड़ बना मुआवजा
हरसूद के विस्थापन में इतनी विसंगतियां हैं जिनका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। यदि 1160 करोड़ रुपए को 250 में बांटा जाए तो एक गांव के हिस्से में जमीन, मकान, पुनर्वास और विस्थापन की कीमत 4.60 करोड़ रुपए आती है। जबकि एक सरकारी भवन को बनने में ही इतनी रकम खर्च हो जाती है।



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ये है नया हरसूद... आज भी सुविधाओं से हैं महरूम
नया हरसूद तो बसा दिया गया, लेकिन यहां पुराने हरसूद जैसी रौनक आज भी नहीं लौट सकी। इसकी बसाहट में सबसे बड़ी खामी ये रही कि इसे अव्यवस्थित तरीके से दूर-दूर बसाया गया। विस्थापितों को कई मूलभूत सुविधाएं आज भी नहीं मिल सकीं। इसके चलते सभी विस्थापित न यहां रहने को तैयार हुए न अब तक पर्याप्त विकास हुआ।

सुनहरे कल की उम्मीद में गुजर रहे दर्द के लम्हे
हरसूद के विस्थापितों को पुनर्वास को लेकर जो सपने सरकार ने दिखाए थे वो सब धरे के धरे रह गए। आज यहां की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है। लोगों के पास रोजगार नहीं होने से बदहाली में एक-एक दिन गुजार रहे हैं। वहीं ज्यादातर लोगों ने रोजगार की तलाश में पलायन कर लिया हैं। अपने मकानों में ताला लगाकर, परिवार से दूर रहकर दो जून रोटी के लिए मीलों दूर जाना पड़ रहा है। आज भी विस्थापित मालिकाना हक, रोजगार और आसपास जुड़े कृषि क्षेत्रों में सिंचाई परियोजनाओं के लिए सरकार से आस लगाए हुए हैं। वहीं परियोजना में छूटे गांव और कई परिवारों की आज बहुत ही बदहाल स्थिति है। चारों तरफ बेतहाशा पानी होने के बावजूद अपने परिवार के साथ वीरान शहर के खंडरों के आसपास रहने को मजबूर हैं। न तो समय से पानी की सुविधा और न ही सड़क की। पुनर्वास स्थलों में बाजार की व्यवस्था न होने से लोगों को आज भी छनेरा जाना पड़ता है। मच्छरों के प्रकोप के चलते घरों में रहना मुश्किल हो गया है। पुनर्वास स्थल पर बसे विस्थापित मजदूर, किसान, व्यापारियों ने बताया यहां की व्यापारिक बसाहट को लेकर पहल की जानी चाहिए। रोजगार की दृष्टि से रेवा थर्मल पावर और सिंचाई परियोजना को जल्द ही धरातल पर लाने की आवश्यकता है।


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एनएचडीसी ने खर्चे 1160 करोड़, कमाए 6000 करोड़
एनएचडीसी ने विस्थापन के दौरान विस्थापितों के मुआवजा, पुनर्वास, निर्माण आदि में 1160 करोड़ रुपए खर्च किए, जबकि कंपनी 13 साल में इंदिरा सागर जलाशय से करीब छह हजार करोड़ रुपए कमा चुकी है। एनएचडीसी विस्थापितों से लड़ाई लडऩे में कोर्ट फीस और वकील के खर्च में ही 9.05 करोड़ रुपए कर चुकी है। इस रुपए से कई और परिवारों को उचित मुआवजा दिया जा सकता था। 2000 विस्थापित आज भी न्यायालय की शरण में हैं। 1300 प्रकरणों में 85 करोड़ रुपए की राशि बंटी, इसमें भी बंदरबांट करते हुए चंद लोगों में 35 करोड़ बांट दिए, जबकि मात्र 50 करोड़ का मुआवजा 304 परिवारों को बांटा गया। इन विषमताओं के चलते डूब प्रभावित आज भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं।


सरकारों ने मुआवजा और पुनर्वास में लूटा
इंदिरा सागर के डूब प्रभावितों के विस्थापन के अलावा ओंकारेश्वर और अन्य बांधों को बनाने में सरकारों ने मुआवजा और पुनर्वास में बहुत लूटा है। कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो 100 रुपए का दस रुपए भी लोगों तक नहीं पहुंचा है। जब तक सभी को हक नहीं मिलता, आंदोलन जारी रहेगा।
चित्तरूपा पालित, नेत्री, नर्मदा बचाओ आंदोलन

हरसूद विस्थापितों के साथ छलावा किया
सरकार ने हरसूद विस्थापितों के साथ छलावा किया है। कहा कुछ और लेकिन दिया कुछ नहीं। यही हाल सरदार सरोवर बांध में हो रहा है। वहां के सरकारी आंकड़े और हकीकत में काफी कुछ अंतर है। सरकार न तो कोर्ट के अनुसार और न ही उनके द्वारा की गई घोषणाओं व वादे को पूरा कर रही है।
मेधा पाटकर, नेत्री, नर्मदा बचाओ आंदोलन

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