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पश्चिम बंगाल में वर्चस्व की लड़ाई

पश्चिम बंगाल में सत्ता बदल जाती है, शासक के चेहरे बदल जाते हैं, परन्तु एक चीज नहीं बदलती...और, वह है राजनीतिक हिंसा की तस्वीर। ऐसा कोई महीना नहीं निकलता जिसमें राजनीतिक हिंसा से जुड़ी वारदात न हो। गत जुलाई महीने में ही हिंसा की कई घटनाएं सामने आई हैं।

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पश्चिम बंगाल में वर्चस्व की लड़ाई

पश्चिम बंगाल में वर्चस्व की लड़ाई

मारे गए हजारों, अब भी जा रही लोगों की जान
चुनावी वर्ष में हिंसा के खतरनाक रूप लेने की आशंका
रवीन्द्र राय
कोलकाता. पश्चिम बंगाल में सत्ता बदल जाती है, शासक के चेहरे बदल जाते हैं, परन्तु एक चीज नहीं बदलती...और, वह है राजनीतिक हिंसा की तस्वीर। ऐसा कोई महीना नहीं निकलता जिसमें राजनीतिक हिंसा से जुड़ी वारदात न हो। गत जुलाई महीने में ही हिंसा की कई घटनाएं सामने आई हैं। उत्तर 24 परगना जिले के उत्तर बैरकपुर में तृणमूल पार्षद चम्पा दास के पैर में गोली मार दी गई तो नदिया के कृष्णनगर में भाजपा कार्यकर्ता बापी घोष को मार डाला गया। दक्षिण 24 परगना जिले में सत्तारूढ़ तृणमूल और एसयूसीआई समर्थक भिड़ गए। अश्विनी मन्ना नामक तृणमूल कार्यकर्ता तो सुधांशु जाना नामक एसयूसीआई समर्थक की मौत हो गई। ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं। वाम जमाने में हजारों लोग मारे गए। तृणमूल राज में भी वर्चस्व की लड़ाई जारी है। जिस तरह से सत्तारूढ़ पार्टी तथा विपक्षी पार्टियों में अभी हिंसा हो रही है, अगले साल प्रस्तावित विधानसभा चुनाव के दौरान हिंसा के खतरनाक रूप लेने की आशंका बढ़ गई है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा का दौर खत्म कब होगा? कब कोई महिला बेटा-बेटी-पति नहीं खोएगी?
इतिहास पर नजर डाले तो बंगाल में हिंसा वायसराय लॉर्ड कर्जन के 1905 में बंगाल के विभाजन के फैसले के विरोध में शुरू हुई तथा आजादी मिलने तक जारी है। 1960 के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन से बंगाल की राजनीति में एक हिंसक मोड़ आया। 60-70 के दशक में राज्य ने कांग्रेस व वामदल के बीच चले हिंसक दौर को देखा। विधानसभा में कहा गया कि 1977 से 2007 तक राजनीतिक कारणों से राज्य में 28 हजार लोगों की मौत हुई।
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बंगाल में हाल में हिंसा
2016 36
2017 25
2018 96
2019 26
स्त्रोत: केन्द्रीय गृह मंत्रालय
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हिंसा की बड़ी वजहें
हिंसा को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना, बदले की राजनीति, मामूली बातों को लेकर भी सत्ता पक्ष और विपक्ष का आमने-सामने आना, कानून व्यवस्था पर सत्तारूढ़ पार्टी का दखल, विपक्ष का उभार, बेरोजगारी, सीमित संसाधन, बढ़ती जनसंख्या।
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राज्य में अब मामूली हिंसा
वामदलों के जमाने में हिंसा होती है। उस समय खूनी राजनीति का दौर चला। विपक्ष को दबाने के लिए हिंसा को राजनीतिक हथियार बनाया गया। तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आते ही राज्य में हिंसा पर काबू पा लिया गया है। अब दूसरे राज्यों के मुकाबले बंगाल में मामूली हिंसा होती है। यहां की छोटी-मोटी हिंसा को भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है। तृणमूल सरकार मां, माटी, मानुष की सरकार है।
-सुब्रत मुखर्जी, तृणमूल कांग्रेस नेता
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अपराधियों को न मिले टिकट
हिंसा पूरे देश में होती है। कहीं जाति के नाम पर तो कहीं धर्म के नाम। बंगाल में मध्यम वर्ग के प्रभाव के चलते राजनीति में संघर्ष देखा जाता है। वाम जमाने में हिंसा हुई है, लेकिन उस तरीके से नहीं जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस ने हिंसा को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। पहले पार्टियों में गुरुजनों और सज्जन व्यक्तियों की पूछ थी, अब महाजन और बाहुबलियों का बोलबाला है। राजनीति में अपराधीकरण पर नियंत्रण तथा आपराधिक पृष्ठिभूमि के व्यक्ति को किसी भी चुनाव में उम्मीदवार नहीं बनाए जाने पर भी कुछ हद तक हिंसा पर रोक लगाई जा सकती है।
मोहम्मद सलीम, माकपा नेता
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हिंसा पर लगेगी लगाम
तृणमूल कांग्रेस ने बदलाव चाहिए, बदला नहीं का नारा देकर राज्य की सत्ता हासिल की थी, लेकिन पार्टी के शासन काल में केवल बदले की राजनीति देखी गई। 2019 के लोकसभा चुनाव शुरू होने तथा चुनाव बाद तक हमारे 80-90 कार्यकर्ताओं की जान गई है। वाम जमाने से शुरू हुई हिंसा तृणमूल सरकार में चरम पर पहुंच गई। वैचारिक टकराव स्वाभाविक है। सत्ता के लिए जाति, पहचान व खूनी राजनीति बंद होनी चाहिए। यदि राज्य में भाजपा सरकार बनती है तो निश्चित तौर पर हिंसा पर लगाम लगेगी।
-शिशिर बाजोरिया, भाजपा नेता