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प्रेम और सांस्कृतिक सम्मिश्रण का काव्य पद्मावत

भारतीय भाषा परिषद में पद्मावत की महत्ता पर चर्चा

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kolkata

कोलकाता. जायसी की कृति पद्मावत भारत की सांस्कृतिक समावेशिकता का आख्यान है, जिसमें अहंकार का कोई स्थान नहीं है। यह प्रेम और सांस्कृतिक सम्मिश्रण का काव्य है। भारतीय भाषा परिषद में शनिवार को वर्तमान संदर्भ में जायसी की कृति पद्मावत की महत्ता पर चर्चा के दौरान वक्ताओं ने यह बात कही। गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रो. अनिल कुमार राय ने कहा कि इसमें सामंती वीरता और जौहर के महिमामंडन की जगह यह संदेश है कि यदि जीवन में प्रेम की जगह भौतिक लोभ और हिंसात्मक उत्पीडऩ बढ़ेगा तो पृथ्वी राख में बदल जाएगी। जायसी की कृति में अलाउद्दीन लोभ, हिंसा और भौतिक माया का प्रतीक है, जबकि पद्मावती अहं का विसर्जन कर अखंडता के ईश्वरीय सौंदर्य का संदेश देती है। प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. वेदरमण ने कहा कि ‘पद्मावत’ में सूफी प्रेम की स्थापना करते हुए जायसी ने कहा था कि आसमान में जितने नक्षत्र और शरीर में जितने रोएं हैं, ईश्वर तक पहुंचने के उतने मार्ग हो सकते हैं। सभा की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. शंभूनाथ ने कहा कि ‘पद्मावत’ हिंसा के युग में अहिंसा और प्रेम का महिमामंडन है, जबकि फिल्म निराश करती है। अतिथियों का स्वागत परिषद मंत्री विमला पोद्दार और धन्यवाद ज्ञापन परिषद अध्यक्ष डॉ. कुसुम खेमानी ने किया। संचालन पीयूषकांत ने कहा कि जायसी के ‘पद्मावत’ में स्त्री को ‘वस्तु’ समझने का विरोध करते हुए नारी स्वाभिमान की आवाज को पेश किया गया है। अब इस महाकाव्य को नए परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। इसमें काफी संख्या में साहित्य प्रेमी और विद्यार्थियों ने भाग लिया।

पद्मावत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य
पद्मावत हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत सूफी परम्परा का प्रसिद्ध महाकाव्य है। इसके रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसी हैं। दोहा और चौपाई छन्द में लिखे गए इस महाकाव्य की भाषा अवधी है। यह हिन्दी की अवधी बोली में है और चौपाई, दोहों में लिखी गई है। चौपाई की प्रत्येक सात अर्धालियों के बाद दोहा आता है और इस प्रकार आए हुए दोहों की संख्या 653 है। इसकी रचना सन् 947 हिजरी. (संवत् 1540) में हुई थी। इसकी कुछ प्रतियों में रचनातिथि 927 हि. मिलती हैै। अन्य कारणों के अतिरिक्त इस असंभावना का सबसे बड़ा कारण यह है कि मलिक साहब का जन्म ही 900 या 906 हिजरी में हुआ था। ग्रंथ के प्रारंभ में शाहेवक्त के रूप में शेरशाह की प्रशंसा है, यह तथ्य भी 947 हि. को ही रचनातिथि प्रमाणित करता है। 927 हि. में शेरशाह का इतिहास में कोई स्थान नहीं था।