
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (BSP) अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है। लगातार घटते जनाधार के बीच पार्टी के भविष्य को लेकर गंभीर सवाल उठने लग गए हैं। सवाल उठ रहे हैं की क्या कांशीराम की बसपा अब अपने अंतिम दौर में है? क्या उत्तर प्रदेश में 2027 का चुनाव बसपा के ताबूत में आखिर किल साबित होगा ? तमाम सवाल है लेकिन इन सभी का जवाब भविष्य के गर्भ में है।
पिछले एक दशक में अर्श से फर्श के सफर में बसपा की गिरावट के लिए कई कारण गिनाए जाते हैं लेकिन अगर गहराई से देखा जाए तो इसकी सबसे बड़ी वजह ब्राह्मणों का उससे दूर हो जाना है। मायावती ने 2007 में जिस ब्राह्मण-दलित गठबंधन के दम पर सत्ता हासिल की थी, वही गठबंधन बाद में उनकी पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हुआ।
बसपा की पारंपरिक राजनीति दलित केंद्रित रही थी, लेकिन 2007 के चुनावों में मायावती ने ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की नीति अपनाई और ब्राह्मणों को अपने पाले में खींचा। सतीश चंद्र मिश्रा को आगे कर उन्होंने ब्राह्मणों को बसपा से जोड़ने का प्रयास किया। नारा दिया गया 'ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा', जिससे ब्राह्मणों को यह संदेश गया कि वे भी सत्ता में भागीदार रहेंगे। इसका परिणाम यह हुआ कि बसपा ने 2007 के चुनाव में 40.43% वोट शेयर के साथ 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
2012 के चुनावों तक आते-आते यह गठबंधन बिखरने लगा। सरकार बनने के बाद बसपा ने ब्राह्मणों को सिर्फ शोपीस बनाकर रखा, लेकिन उन्हें कोई ठोस राजनीतिक फायदा नहीं मिला। पार्टी में निर्णय लेने की ताकत सिर्फ मायावती और उनके करीबी नेताओं तक सीमित रही। 2012 विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण वोट बैंक सपा की ओर खिसका तो बसपा 80 सीटों पर सिमट गई लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा ने ब्राह्मणों को हिंदुत्व और विकास के एजेंडे के तहत अपनी ओर आकर्षित किया। इसके बाद यह वोट बैंक तेजी से भाजपा के पक्ष में चला गया। 2017 विधानसभा चुनाव में बसपा 19 सीटें ही जीत पाई। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में तो बसपा की ऐसी किरकिर हुई की पार्टी महज एक सीट ही जीत पाई।
साल 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान बसपा ने ब्राह्मण के बीच खोए हुए जनाधार को पाने के लिए फिर से कोशिशें की। मायावती ने फिर से ब्राह्मण सम्मेलनों का आयोजन किया लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि 2014 में मोदी के हिदुत्व वाले एजेंडे में ब्राह्मणों अपने लिए मुफिद माना और भाजपा के साथ खुद को अधिक सुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
2027 का चुनाव बहुजन समाज पार्टी के लिए आखिरी मौका हो सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर इस चुनाव में बसपा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो पार्टी पूरी तरह हाशिए पर चली जाएगी क्योंकि भाजपा और सपा ने बसपा के पारंपरिक वोट बैंक में गहरी सेंध लगा दी है। चंद्रशेखर आज़ाद नए दलित नेतृत्व के रूप में उभर रहे हैं।
Updated on:
08 Mar 2025 04:20 pm
Published on:
05 Mar 2025 05:01 pm
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