
जब हवा में सांस ले रहे हैं हम, तो उसी को सिलेंडर में भर लें, आखिर हवा और मेडिकल ऑक्सीजन में क्या है अंतर
लखनऊ. Medical Oxygen Kaise Banti Hai: उत्तर प्रदेश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर ने एक तरफ तबाही मचा रखी है, तो दूसरी तरफ सरकार की सभी तैयारियों की पोल भी खोल दी है। प्रदेश के लगभग सभी अस्पतालों में बेड और दवा तो दूर, मरीजों को ऑक्सीजन तक नहीं मिल रही है। हालत इतनी खराब है कि लोगों को ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए दर-दर की ठोकरें कानी पड़ रही हैं। तो इस बीच ऑक्सीजन और बाकी दवाओं व इंजेक्शन की कालाबाजारी भी जोरों पर है। ऐसे में लोगों के मन में सवाल आ रहा है कि जब हम लोग हवा में सांस ले सकते हैं और ऑक्सीजन हमारे चारों तरफ मौजूद है। तो इसी ऑक्सीजन रूपी हवा को सिलेंडरों में भरकर मरीजों को क्यों नहीं दी जाती। आखिर हमारे चारों तरफ फैली ऑक्सीजन और मेडिकल ऑक्सीजन में क्या अंतर है। इसको कैसे बनाया जाता है और इसकी इतनी किल्लत क्यों है।
क्या है मेडिकल ऑक्सीजन
मेडिकल ऑक्सीजन का मतलब 98% तक शुद्ध ऑक्सीजन होता है, जिसमें नमी, धूल या दूसरी गैस जैसी अशुद्धियां न मिली हों। कानूनी रूप से यह एक आवश्यक दवा है, जो 2015 में जारी देश की अति आवश्यक दवाओं की सूची में भी शामिल की गई है। मेडिकल ऑक्सीजन को WHO ने भी आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल किया है। दरअसल हमारे चारों ओर मौजूद हवा में केवल 21% ऑक्सीजन ही होती है। इसलिए मेडिकल इमरजेंसी में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यही वजह है कि मेडिकल ऑक्सीजन को लिक्विड अवस्था नें खास वैज्ञानिक तरीके से बड़े-बड़े प्लांट में तैयार किया जाता है।
कैसे बनती है मेडिकल ऑक्सीजन
मेडिकल ऑक्सीजन को हमारे चारों ओर मौजूद हवा में से शुद्ध ऑक्सीजन को अलग करके बनाई जाती है। हमारे आसपास मौजूद हवा में 78% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन और बाकी 1% आर्गन, हीलियम, नियोन, क्रिप्टोन, जीनोन जैसी गैस होती हैं। इन सभी गैसों का बॉयलिंग पॉइंट बेहद कम, लेकिन अलग-अलग होता है। ऐसे में अगर हम हवा को जमा करके उसे ठंडा करते जाएं तो सभी गैस बारी-बारी से तरल बनती जाएंगी और उन्हें हम अलग-अलग करके लिक्विड फॉर्म में जमा कर लेते हैं। इस तरह से तैयार लिक्विड ऑक्सीजन 99.5% तक शुद्ध होती है। इस प्रक्रिया से पहले हवा को ठंडा करके उसमें से नमी और फिल्टर के जरिए धूल, तेल और अन्य अशुद्धियों को अलग कर लिया जाता है।
अस्पतालों तक कैसे पहुंचती है ऑक्सीजन
इस लिक्विड ऑक्सीजन को मैनुफैक्चरर्स बड़े-बड़े टैंकरों में स्टोर करते हैं। यहां से बेहद ठंडे रहने वाले क्रायोजेनिक टैंकरों से डिस्ट्रीब्यूटर तक भेजते हैं। डिस्ट्रीब्यूटर इसका प्रेशर कम करके गैस के रूप में अलग-अलग तरह के सिलेंडर में इसे भरते हैं। यही सिलेंडर सीधे अस्पतालों में या इससे छोटे सप्लायरों तक पहुंचाए जाते हैं। कुछ बड़े अस्पतालों में अपने छोटे-छोटे ऑक्सीजन जनरेशन प्लांट भी होते हैं।
क्यों है ऑक्सीजन की कमी
कोरोना महामारी से पहले भारत में रोज मेडिकल ऑक्सीजन की खपत 1000-1200 मीट्रिक टन थी, यह 15 अप्रैल तक बढ़कर 4,795 मीट्रिक टन हो गई। तेजी से बढ़ी मांग के चलते ऑक्सीजन की सप्लाई में भारी दिक्कत हो रही है। पूरे देश में प्लांट से लिक्विड ऑक्सीजन को डिस्ट्रीब्यूटर तक पहुंचाने के लिए केवल 1200 से 1500 क्राइजोनिक टैंकर उपलब्ध हैं। यह महामारी की दूसरी लहर से पहले तक के लिए तो पर्याप्त थे, मगर अब 2 लाख मरीज रोज सामने आने से टैंकर कम पड़ रहे हैं। डिस्ट्रीब्यूटर के स्तर पर भी लिक्विड ऑक्सीजन को गैस में बदल कर सिलेंडरों में भरने के लिए भी खाली सिलेंडरों की कमी है।
इंसान को कितनी ऑक्सीजन की जरूरत
एक वयस्क जब वह कोई काम नहीं कर रहा होता तो उसे सांस लेने के लिए हर मिनट 7 से 8 लीटर हवा की जरूरत होती है। यानी रोज करीब 11,000 लीटर हवा। सांस के जरिए फेफड़ों में जाने वाली हवा में 20% ऑक्सीजन होती है, जबकि छोड़ी जाने वाली सांस में 15% रहती है। यानी सांस के जरिए भीतर जाने वाली हवा का मात्र 5% का इस्तेमाल होता है। यही 5% ऑक्सीजन है जो कार्बन डाइऑक्साइड में बदलती है। यानी एक इंसान को 24 घंटे में करीब 550 लीटर शुद्ध ऑक्सीजन की जरूरत होती है। मेहनत का काम करने या वर्जिश करने पर ज्यादा ऑक्सीजन चाहिए होती है। एक स्वस्थ वयस्क एक मिनट में 12 से 20 बार सांस लेता है। हर मिनट 12 से कम या 20 से ज्यादा बार सांस लेना किसी परेशानी की निशानी है।
Published on:
20 Apr 2021 09:59 am
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