scriptUP politics: सरकार किसी की भी हो ठाकुरों का हमेशा रहा वर्चस्व, आजादी से अब तक का जानें हाल | Thakurs dominting UP Politics in depth details | Patrika News

UP politics: सरकार किसी की भी हो ठाकुरों का हमेशा रहा वर्चस्व, आजादी से अब तक का जानें हाल

locationलखनऊPublished: Oct 10, 2020 03:56:57 pm

Submitted by:

Abhishek Gupta

– सपा-बसपा (SP-BSP) के उदय के दौरान भी क्षत्रियों का प्रभाव बरकरार- तमाम ठाकुर नेता राजपरिवारों से, लंबे समय से जीतते आ रहे- क्षत्रिय और ब्राह्मण की आबादी 15 प्रतिशत, विस की 25 फीसद सीटों पर कब्जा
 

Thakurs in UP politics

Thakurs in UP politics

पत्रिका इन्डेप्थ स्टोरी.

लखनऊ. हाथरस कांड (Hathras case) के बहाने एक बार फिर यूपी में जाति व्यवस्था सुर्खियों में है। पीड़िता दलित (Dalit) वर्ग के बाल्मीकि समाज की थी, जबकि चारो आरोपी उच्च जाति के ठाकुर (Thakur) हैं। हाथरस के जिस गांव में यह घटना हुई उस गांव के 600 परिवारों में से करीब आधे ठाकुर हैं। 100 ब्राह्मण परिवार हैं। जबकि 15 परिवार दलित हैं। आरोप लग रहे हैं एक बार फिर यूपी में उच्च जातियां विशेषकर ठाकुर समुदाय सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हो रहा है। उधर, ब्राह्मणों का आरोप है कि उनका उत्पीड़न बढ़ा है।
ये भी पढ़ें- Hathras Ground Report: छोटा सा गांव, बातें बड़ी-बड़ी, 2001 से चली आ रही है दोनों परिवारों में रंजिश

यूपी में ठाकुर बिरादरी का वर्चस्व-

भारतीय सामाजिक संरचना में जो जातीय व्यवस्था है उसमें ठाकुर सवर्ण हैं। यह ब्राह्मणों के समकक्ष हैं। कहीं ऊपर तो कहीं ठीक नीचे आते हैं। इनकी पहचान योद्धा जाति के रूप में रही है। ठाकुर और राजपूत जातियां एक दूसरे की पर्याय हैं। लेकिन यूपी में प्राय: ठाकुर या क्षत्रिय ही पाए जाते हैं। उत्तर भारत के बड़े हिस्सों में यह बड़े भूस्वामी और काश्तकार रहे हैं। जमींदारी व्यवस्था में भू लगान वसूलने का ठेका इन्हीं के पास था इसलिए यह आज भी बड़े भू स्वामी हैं। समाजविज्ञानी कहते हैं खेती करना ठाकुरों का जातिगत व्यवसाय कभी नहीं रहा, लेकिन ज्यादा खेत होने की वजह से पीढ़ी दर पीढ़ी मजदूरों के जरिए खेती कराने का कौशल इनमें विकसित हुआ और यह समृद्ध किसान बने। समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास कहते हैं कि भारत के गांवों में किसी भी विशेष जाति के प्रभुत्व के लिए तीन महत्वपूर्ण आवश्यकताएं हैं वे हैं- भूमि स्वामित्व, अपेक्षाकृत उच्च अनुष्ठान की स्थिति और संख्यात्मक शक्ति। यह तीनों चीजों ठाकुरों के पास हैं। इसलिए वे सबल और निर्णायक भूमिका में हैं।
ये भी पढ़ें- यूपी उपचुनावः राष्ट्रीय लोक दल व कांग्रेस ने प्रत्याशियों का किया ऐलान

भूमि सुधार में भी रहे फायदे में-
उप्र में 1950 और 60 के दशक के बड़े पैमाने पर लैंड रिफॉर्म हुआ। इस दौरान ठाकुरों ने अपनी बहुत सी जमीन खो दी। विशेष रूप से पश्चिमी यूपी में, जहां हाथरस की घटना घटी। वहां पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह के नेतृत्व में बड़े जोर-शोर से लैंड रिफ़ॉर्म हुआ लेकिन, इसका लाभ अन्य पिछड़ी जातियों की तुलना में दलितों को बहुत मिला। अनुसूचित जातियां उच्च जातियों पर ही निर्भर बनी रहीं।
UP politics: सरकार किसी की भी हो ठाकुरों का हमेशा रहा वर्चस्व, आजादी से अब तक का जानें हाल
यूपी की राजनीति में राजे-रजवाड़े
उप्र की राजनीति में आजादी के बाद से ही जमींदारों और रजवाड़ों का वर्चस्व रहा है। यूपी के पहले ठाकुर मुख्यमंत्री वीपी सिंह इलाहाबाद के मांडा के राज परिवार से थे। कुंडा निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय विधायक राजा भैया भदरी के राजपरिवार से आते हैं। देश के आठवें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी बलिया के एक शक्तिशाली जमींदार परिवार से थे।
वीपी सिंह पहले ठाकुर मुख्यमंत्री
यूपी के राजनीतिक परिदृश्य में जाति हमेशा से केंद्रीय भूमिका में रही है। पिछले 30 सालों से तो यह पूरी तरह जातियों में ही सिमट कर रह गयी है। आजादी से लेकर 1960 तक यूपी में कांग्रेस हावी रही। तब इसका नेतृत्व ब्राह्मणों व ठाकुरों के हाथ में था। 1960 के दशक में चौधरी चरण सिंह के उदय के बाद लैंड रिफॉर्म और जातीय चेतना से जुड़े आंदोलन चले। तब ओबीसी जातियां यादव, जाट, कुर्मी और गुर्जरों का उभार हुआ और यूपी को वीपी सिंह और वीर बहादुर सिंह के रूप में पहला ठाकुर मुख्यमंत्री मिला। यूपी की राजनीति में तीसरा चरण 1990 के दशक से शुरू होता है। इस दौर में समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा का उदय हुआ। एक ने पिछड़ों को जोड़ा तो दूसरे ने दलितों को। इस दौर में भले ही निचली जातियों का थोड़ा उत्थान हुआ लेकिन ठाकुर-ब्राहण का प्रभाव कम नहीं हुआ।
15 प्रतिशत आबादी 25 प्रतिशत सीटों पर कब्जा
ईपीडब्ल्यू (इकोनॉमिक और पॉलिटिकल वीकली) की रिपोर्ट के अनुसार यूपी में जब-जब सपा विधानसभा चुनाव जीतती है, तब-तब ठाकुर विधानसभा में सबसे बड़े समूह के रूप में उभरते हैं। वहीं बसपा के कार्यकाल में ब्राह्मणों का वर्चस्व होता है। ठाकुर और ब्राह्मण दोनों जातियां मिलकर भी कुल आबादी का 15 प्रतिशत ही हैं। लेकिन हर चुनाव में विधानसभा की 25 प्रतिशत से अधिक सीटों पर इन दो जातियों का ही कब्जा रहता है।
UP politics: सरकार किसी की भी हो ठाकुरों का हमेशा रहा वर्चस्व, आजादी से अब तक का जानें हाल
मुलायम मंत्रिमंडल में भी ठाकुरों का वर्चस्व

ठाकुरों की ताकत को समझते हुए पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव 1997 में अपनी पार्टी में अमर सिंह को ठाकुर चेहरे के रूप में लाए थे। इसके बाद तो यादव मंत्रिमंडल में ठाकुरों का बोलबाला रहा। कमोबेश अखिलेश यादव के मंत्रिमंडल में भी ठाकुर जाति का प्रतिनिधित्व कम नहीं था। रही बात निचली जातियों विशेषकर बाल्मीकि, जाटव और पासी ने मायावती के उभार के बाद भले ही राजनीतिक दृश्यता हासिल कर ली है, लेकिन इनमें सामाजिक एक जुटता नहीं आ पायी। जाटव और बाल्मीकि अपने सामाजिक-धार्मिक विभाजन के कारण प्रमुख जातियों के खिलाफ एक गठबंधन समूह के रूप में उभरने में विफल रहे। यही वजह है यह आज भी सबसे ज्यादा संकट में हैं।
yogiaction.jpg
…तो क्या फिर हो रही ठाकुरवाद की वापसी
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह आरोप लगाने वालों की कमी नहीं है कि एक बार फिर यूपी में ‘ठाकुरवाद’ की वापसी हो रही है। ब्राह्मणों ने इसकी खुलकर मुखालफत की है। यह भी आरोप हैं कि यूपी की नौकरशाही में ठाकुर हावी हैं। इस संबंध में समाज वैज्ञानिक बद्री नारायण कहते हैं जब प्रदेश में एक ठाकुर मुख्यमंत्री है, तो इस तरह के आरोप स्वाभाविक हैं, भले ही योगी एक सन्यासी हैं और जाति से ऊपर उठ चुके हैं। आरोप जो भी हों लेकिन यूपी में ठाकुर समुदाय के राजनीतिक प्रभुत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इतिहास गवाह है आजादी के बाद से यूपी में सत्ता में कोई भी हो ठाकुर हमेशा से प्रभावी रहे हैं।
loksabha entry point

ट्रेंडिंग वीडियो