
उत्तर प्रदेश की राजनीति जातीय अधार पर टिकी है। या यूं कहें कि जिसने जातियों के समीकरण को समझा वो ही सत्ता के शिखर पर पहुंचा। उत्तर प्रदेश में कोई भी पार्टी पूर्ण बहुमत के लिए सवर्ण, ओबीसी, दलित और मुस्लिम वोटों के संयोजन पर निर्भर करती है। बीजेपी का दबदबा सवर्ण और गैर-यादव ओबीसी पर है लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी मतदाता भाजपा से थोड़ा दूर हुए, जबकि सपा यादव-मुस्लिम समीकरण पर टिकी है, वहीं बसपा जाटव वोटों पर निर्भर है।
वर्तमान में हिन्दुत्व के मुद्दे और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सवर्ण वोट पहले से बीजेपी के साथ हैं। ऐसे में अलग अध्यक्ष ओबीसी से बनाया जाता है तो सवर्ण के बीच संतुलन बनाया जा सकता है। 2024 के लोकसभा चुनाव में कुछ ओबीसी वर्गों की नाराजगी के बाद यह फैसला पार्टी के लिए वोटों को फिर से मजबूत करने का रास्ता खोल सकता है।
यूपी में ओबीसी आबादी करीब 40-45% है, जिसमें गैर-यादव ओबीसी (कुर्मी, जाट, लोधी, निषाद आदि) का बड़ा हिस्सा बीजेपी का पारंपरिक आधार रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा-कांग्रेस गठबंधन ने इस वोट बैंक में सेंधमारी की थी, जिसके बाद ओबीसी नेतृत्व को आगे लाने की बात तेज हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि कुर्मी (7-8%) या जाट (2-3%) जैसे समुदायों का चेहरा गैर-यादव ओबीसी को फिर से पार्टी की ओर खींच सकता है।
पिछड़े चेहरे के रूप में जलशक्ति मंत्री स्वतंत्र देव सिंह, केंद्रीय मंत्री बीएल वर्मा, प्रदेश महामंत्री अमरपाल मौर्य, पशुधन मंत्री धर्मपाल सिंह और सांसद बाबू राम निषाद के नाम चर्चा में है। इनमें से स्वतंत्र देव सिंह को मजबूत दावेदार माना जा रहा है क्योंकि स्वतंत्र देव सिंह के नेतृत्व में ही 2014 और 2017 में बीजेपी को यूपी में शानदार जीत मिली थी। साथ ही पार्टी ने 2022 का विधानसभा चुनाव जीतकर इतिहास रचा था। अब 2027 के चुनाव को देखते हुए उनके नाम पर फिर से विचार होना बीजेपी की रणनीति का हिस्सा हो सकता है।
Updated on:
18 Mar 2025 10:38 pm
Published on:
18 Mar 2025 07:38 pm
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