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अयोध्‍या: क्या है इस्माइल फारूकी जजमेंट और सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर कैसे उठा यह मुद्दा?

2017 में अयोध्‍या मसले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में शुरू हुई तो अदालत ने कहा था कि ये मामला महल जमीन विवाद है।

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Dhirendra Kumar Mishra

Sep 27, 2018

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अयोध्‍या: क्या है इस्माइल फारूकी जजमेंट और सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर कैसे उठा यह मुद्दा?

नई दिल्ली। राम जन्‍मभूमि मंदिर और बाबरी मस्जिद मसला करीब 70 साल पुराना है। 1949 से ही इस पर अदालती लड़ाई जारी है। जब 2017 के अंतिम महीनों में अयोध्‍या मसले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में शुरू हुई तो अदालत ने कहा कि ये मामला महल जमीन विवाद है। इसका प्रतिवाद करते हुए मुस्लिम पक्षकारों की ओर से पेश वरिष्‍ठ वकील राजीव धवन ने इस मसले को उठाया। उन्‍होंने कहा कि यह नमाज पढ़ने के अधिकार से भी जुड़ा है। इस अधिकार को बहाल करने की जरूरत है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार करने का आश्‍वासन दिया था।

उस समय सुप्रीम कोर्ट ने क्‍या कहा?
मुस्लिम पक्षकारों की आपत्तियों पर शीर्ष अदालत ने कहा था कि इस मामले में कोर्ट सभी पहलू पर गौर फरमाएगा कि क्या 1994 के इस्‍माइल फारुकी मामाले में सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक बेंच के फैसले पर विचार करेगी कि इस पर नए सिरे से विचार करने के लिए संवैधानिक बेंच को भेजा जाए या नहीं। 20 जुलाई को इस मामले में सुनवाई पूरी होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ देर बाद आएगा। फैसले से साफ हो जाएगा कि इस मामले को एक और संवैधानिक बेंच के सामने रखा जाए या नहीं। कोर्ट की ओर से फैसला के बाद ही जमीन विवाद मामले की सुनवाई शुरू होगी।

मुस्लिम पक्षकारों का दावा
दरअसंल, पांच दिसंबर, 2017 को अयोध्या मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के कहा कि यह मामला महज जमीन विवाद है। लेकिन मुस्लिम पक्षकार की ओर से पेश राजीव धवन ने कहा कि नमाज पढ़ने का अधिकार है और उसे बहाल किया जाना चाहिए। नमाज अदा करना धार्मिक प्रैक्टिस है और इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। ये इस्लाम का अभिन्न अंग है। क्या मुस्लिम के लिए मस्जिद में नमाज पढ़ना जरूरी नहीं है?

दोबारा विचार करने की जरूरत
धवन ने दलील दी थी कि सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में दिए फैसले में कहा था कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है। इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला 1994 के जजमेंट के आलोक में था और 1994 के संवैधानिक बेंच के फैसले को आधार बनाते हुए फैसला दिया था जबकि नमाज पढ़ना इस्लाम का अभिन्न अंग है और जरूरी धार्मिक गतिविधि है और ये इस्लाम का अभिन्न अंग है। इस संदर्भ में देखा जाए तो सबसे पहले 1994 के संवैधानिक बेंच के फैसले को दोबारा विचार करने की जरूरत है क्योंकि उस जजमेंट के तहत मस्जिद में नमाज पढ़ने का अधिकार खत्म होता है।

फारुकी ने क्‍यों उठाया था नमाज का मुद्दा ?
आपको बता दें कि 1991 में यूपी सरकार ने विवादित जमीन का अधिग्रहण कर लिया था। इसके लिए इस्‍माइल फारुकी कोर्ट गए थे। उन्‍होंने कहा कि विवादित जमीन का यूपी सरकार अधिग्रहण नहीं कर सकती। उन्‍होंने कहा कि मस्जिद में नमाज पढ़ना इस्‍लाम का अभिन्‍न अंग है। इस पर रोक लगाना सही नहीं जा सकता है। इस पर विचार करने के लिए पांच सदस्‍यों की संविधान पीठ गठित हुई थी।

इस मामले में क्‍या आया फैसला?
1994 में पांच जजों की पीठ ने राम जन्मभूमि में यथास्थिति बरकरार रखने का निर्देश दिया था ताकि हिंदू पूजा कर सकें। पीठ ने ये भी कहा था कि मस्जिद में नमाज पढना इस्लाम का इंट्रीगल पार्ट नहीं है। नमाज कहीं और भी पढ़ा जा सकता है। इसके बाद 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसला देते हुए एक तिहाई हिंदू, एक तिहाई मुस्लिम और एक तिहाई राम लला को दिया था।