Published: Mar 20, 2021 11:35:46 pm
पवन राणा
कई बार आजमाए गए फार्मूलों पर संजय गुप्ता का एक और 'शूटआउट'। फिर किया मुजरिमों का महिमा मंडन, मुम्बई पुलिस का उड़ाया उपहास। इंटरवल के बाद पटकथा पड़ गई ढीली, निर्देशन उससे भी ढीला।
-दिनेश ठाकुर
बॉलीवुड के जिन फिल्मकारों का विलायती फिल्मों पर हाथ मारे बगैर काम नहीं चलता, संजय गुप्ता उनमें से एक हैं। उन्होंने यह सिलसिला बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म 'आतिश' (1994) से शुरू कर दिया था। यह हॉलीवुड की 'स्टेट ऑफ ग्रेस' और हांगकांग की 'ए बेटर टुमारो' की कॉकटेल थी। अमिताभ बच्चन की 'दीवार' का भी थोड़ा तड़का लगाया गया था। उनकी 'कांटे' हांगकांग की 'सिटी ऑन फायर' और हॉलीवुड की 'रेजरवॉर डॉग्स' का जोड़-जंतर थी। कई विलायती फिल्मों का देशी चर्बा बनाने के बाद 2007 में उन्होंने पहली बार निर्माता की हैसियत से देशी कहानी पर 'शूटआउट एट लोखंडवाला' बनाई। इसका निर्देशन अपूर्व लखिया से करवाया। मुम्बई के लोखंडवाला कॉम्प्लेक्स में 1991 में हुई गैंगस्टर्स और पुलिस की मुठभेड़ पर आधारित इस फिल्म के बाद वह 'शूटआउट एट वडाला' (2013) भी बना चुके हैं। गैंगस्टर्स की खून-खराबे वाली दुनिया पर जनाब इतने मोहित हैं कि अब 'मुम्बई सागा' लेकर आए हैं। सिर्फ नाम अलग है। बाकी फिल्म में वही घिसे-पिटे मसाले हैं, जो गैंगस्टर्स पर बन चुकीं दर्जनों फिल्मों में दोहराए जा चुके हैं। 'मुम्बई सागा' मुजरिमों का महिमा मंडन करती है और उस पुलिस का उपहास उड़ाती लगती है, हकीकत में जिसने अंडरवर्ल्ड के 'भाऊ' और 'भाइयों' पर नकेल कस रखी है।