
जयंत और अखिलेश की दोस्ती 2017 के बाद हुई थी।
UP Politics News: समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल 5 साल के गठबंधन में हैं लेकिन बीते कुछ दिन से दोनों दलों के रिश्तों में दरार दिख रही हैं। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी की ओर से ये कहा जा चुका है कि 2024 के लिए क्या गठबंधन बनेाग, इसके लिए थोड़ा समय दीजिए। उनकी पार्टी के नेता कह रहे हैं कि हम 2024 में कांग्रेस के साथ जाएंगे। आज जो खाई दोनों दलों में दिख रही है, इसकी शुरुआत गठबंधन के तुरंत बाद ही शुरू हो गई थी। आरएलडी के नेताओं ने निकाय चुनाव के समय सीनियर सहयोगी सपा पर सम्मान ना देने का आरोप लगाया। दबी जुबान में अपमान की ये बात पार्टी नेता पहले भी कह चुके हैं। देखें तो अब तक 5 ऐसे मौके आए हैं जब कभी खुलकर तो कभी दबी जुबान नें आरएलडी ने कहा कि उनका सम्मान नहीं हो रहा है।
1- 2018 का उपचुनाव, सीट देकर अपना प्रत्याशी भी थमा दिया
2017 के विधानसभा चुनाव में सपा और आरएलडी दोनों की हालत काफी खस्ता रही। इसके बाद दोनों दल करीब आए। 2018 में कैराना के लोकसभा उपचुनाव में दोनों दल दिखे लेकिन टिकट पर ही तकरार हो गई। सपा ने सीट रालोद को दी तो साथ में प्रत्याशी भी दे दिया। पार्टी के विधायक नाहिद हसन की माता तबस्सुम को आरलएडी को अपना उम्मीदवार बनाना पड़ा। उपचुनाव भले ही रालोद ने जीता लेकिन पार्टी नेताओं ने इसे अपमान की तरह देखा। पार्टी के लीडरान लगातार कहते रहे कि गठबंधन में सम्मान तब होता जब प्रत्याशी रालोद का ही कोई नेता बनता।
2- 2019 लोकसभा चुनाव: RLD को दीं सिर्फ 3 सीट
2019 का लोकसभा चुनाव हुआ तो रालोद 5 सीट चाहती थी लेकिन 3 सीटें मिलीं। वो भी बहुत लड़कर। पहले तो सिर्फ मुजफ्फरनगर और बागपत में ही समेटने की कोशिश की गई। सपा और बसपा के साथ होने की वजह से पार्टी नेताओं ने किसी तरह दिल को समझा लिया। हालांकि पार्टी नेता दबी जुबान में कहते रहे कि दो बड़ी पार्टियों ने उनको उचित सम्मान नहीं दिया।
3- 2022 में फिर सीटों की लड़ाई में हारी रालोद
उत्तर प्रदेश में 2022 का विधानसभा चुनाव आया तो राष्ट्रीय लोकदल ने समाजवादी पार्टी से 59 सीटें मांगी। लंबी बातचीत के बाद रालोद को झुकना पड़ा। गठबंधन में रालोद को 33 सीटें मिलीं तो पार्टी के नेता मन मसोसकर रह गए।
4- 'सीटें तो देंगे लेकिन नेता हमारे लड़ाओ'
2022 के चुनाव में सीटें तों अपनी मांग से आधी रालोद को मिली हीं, उन पर भी पार्टी के नेता नहीं लड़ सके। सपा ने मीरापुर, पुरकाजी से लेकर सिवालखास तक ज्यादतर मजबूत सीटों पर अपने नेताओं को रालोद से टिकट दिला दिया। इस पर चुनाव लड़ने की चाह रखने वाले पार्टी नेता गुस्से में भी दिखे। उस वक्त रालोद विधानसभा में जीरो पर थी, ऐसे में इस अपमान के घूंट को भी पी लिया गया।
5- निकाय चुनाव में कुछ नहीं मिला तो टूटा RLD के सब्र का बांध
निकाय चुनाव आए तो रालोद ने आगरा और मेरठ में मेयर सीट लड़ने की मांग की। बाद में सिर्फ मेरठ के लिए पार्टी अड़ गई। रालोद सीट मांगती रही और अखिलेश यादव ने यहां से सीमा प्रधान को प्रत्याशी बना दिया। इसके बाद रालोद नेताओं का सब्र टूट गया। खुलकर रालोद नेताओं ने सपा के खिलाफ बयान दिए और मेरठ से मेयर चुनाव लडने का भी ऐलान कर दिया। हालांकि बाद में पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा और सपा को ही सहयोग की बात कही।
दूसरी और सपा ने बागपत की सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए। इसके बाद तो लगा कि गठबंधन अब टूटा-अब टूटा। खैर सपा ने बागपत की सीटों से उम्मीदवार वापस लेकर मामले को ठंडा किया। इसके बाद भी सच्चाई ये रही कि दोनों दलों का कोई तालमेल इस चुनाव में नहीं दिखा। जयंत ने प्रचार से खुद को दूर कर लिया। चुनाव नतीजों में रालोद ने नंगर पंचायत और पालिका की 20 से ज्यादा सीटें भी जीत लीं। इसने पार्टी को बूस्ट दे दिया कि हम अकेले भी कुछ कर सकते हैं और जो गुस्सा और अपमान की बातें ढकी-छुपी थीं। वो अब खुलकर सामने आने लगीं। अब देखना ये है कि पुराने 'अपमानों' की तरह रालोद इस बार भी चुप लगाएगी या 2024 में उसकी जोड़ी कांग्रेस संग जमेगी।
Published on:
23 May 2023 06:42 pm
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