10 दिसंबर 2025,

बुधवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

वक्फ से पहले देशद्रोह, 370 पर भी सुप्रीम कोर्ट में झुक चुकी है सरकार

यह कोई पहला मौका नहीं है जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के सामने अपने कदम पीछे खींचे हों।

3 min read
Google source verification

भारत

image

Anish Shekhar

Apr 19, 2025

केंद्र सरकार एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के सामने बैकफुट पर नजर आई है। वक्फ अधिनियम, 2025 के दो विवादास्पद प्रावधानों—‘वक्फ बाय यूज’ और वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिमों की नियुक्ति—को रोकने का आश्वासन देकर सरकार ने एक और संभावित न्यायिक झटके को टालने की कोशिश की है। यह कोई पहला मौका नहीं है जब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख के सामने अपने कदम पीछे खींचे हों। देशद्रोह कानून से लेकर अनुच्छेद 370 तक के मामलों में भी सरकार को इसी तरह झुकना पड़ा है।

सरकार ने पीछे खींचे कदम

गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने वक्फ अधिनियम के प्रावधानों पर लिखित जवाब दाखिल करने के लिए समय मांगा। लेकिन जब तीन जजों की बेंच, जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश कर रहे थे, ने ‘वक्फ बाय यूज’ की स्थिति बदलने के गंभीर परिणामों पर जोर दिया, तो मेहता ने तुरंत आश्वासन दिया कि केंद्र सरकार इस प्रावधान को लागू नहीं करेगी और न ही राज्यों को वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम नियुक्तियां करने की अनुमति देगी। यह कदम साफ तौर पर एक प्रतिकूल न्यायिक फैसले को टालने की रणनीति थी।

इससे पहले भी सरकार ने कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट के संकेतों को भांपते हुए अपने रुख में बदलाव किया है। मई 2022 में देशद्रोह कानून (आईपीसी की धारा 124ए) पर सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह कानून प्रथम दृष्टया असंवैधानिक लगता है और इसे रद्द किया जा सकता है। इसके ठीक एक दिन बाद सरकार ने कोर्ट में अपने रुख को नरम करते हुए कहा कि वह इस कानून की ‘पुनर्समीक्षा और पुनर्विचार’ करेगी। विडंबना यह है कि इससे पहले की सुनवाइयों में तुषार मेहता ने इस कानून का जोरदार बचाव किया था।

यह भी पढ़ें: ‘पुरानी मस्जिद के कागजात नहीं तो…’, Waqf Act पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से मांगी सफाई

अनुच्छेद 370 पर भी बैकफुट पर आई थी सरकार

इसी तरह, सितंबर 2023 में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने एक अहम सवाल था—क्या संसद को किसी राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने का अधिकार है? इस सवाल पर संविधान पीठ का कोई भी फैसला भविष्य में संसद के लिए बाध्यकारी हो सकता था। इसे भांपते हुए केंद्र सरकार ने कोर्ट को आश्वासन दिया कि जम्मू-कश्मीर को फिर से पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा (लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाए रखते हुए)। सरकार के इस बयान के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल पर फैसला देने की जरूरत नहीं समझी। कोर्ट के फैसले में दर्ज है, “सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा। इस बयान के मद्देनजर हमें यह तय करने की जरूरत नहीं है कि जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में पुनर्गठन अनुच्छेद 3 के तहत वैध है या नहीं।”

दिल्ली दंगों पर सरकार हुई थी नरम

एक और उदाहरण जून 2020 का है, जब दिल्ली दंगों की आरोपी साफूरा जरगर को दिल्ली हाई कोर्ट ने जमानत दी थी। इस मामले में तुषार मेहता ने कोर्ट में बयान दिया कि उन्हें ‘मानवीय आधार’ पर साफूरा की रिहाई से कोई आपत्ति नहीं है। यह बयान भी सरकार के रुख में नरमी का संकेत था।

इन सभी मामलों में एक बात साफ है—सुप्रीम कोर्ट के कड़े तेवर और संभावित प्रतिकूल फैसलों के दबाव में केंद्र सरकार को बार-बार अपने कदम पीछे खींचने पड़े हैं। चाहे वह वक्फ अधिनियम हो, देशद्रोह कानून हो, या अनुच्छेद 370 का मामला, सरकार ने न्यायिक हस्तक्षेप से बचने के लिए रणनीतिक रूप से अपने रुख को नरम किया है। यह प्रवृत्ति न केवल सरकार की कानूनी रणनीति को दर्शाती है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक ताकत और उसकी निगरानी की भूमिका को भी रेखांकित करती है।