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मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव सुप्रीम कोर्ट में तलब, भोपाल गैस त्रासदी मामले पर अवमानना कार्रवाई

Supreme Court: अवमानना याचिका में कहा गया है कि 2015 में हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दाखिल की गई थी, लेकिन पिछले दस सालों में प्रतिवादी अधिकारियों के खिलाफ किसी प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई शुरू नहीं की गई।

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Madhya Pradesh Chief Secretary summoned to Supreme Court for contempt proceedings in Bhopal gas tragedy case

सुप्रीम कोर्ट ने भोपाल गैस त्रासदी मामले में अवमानना का नोटिस जारी किया।

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने 26 सितंबर को भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े पीड़ितों की स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए केंद्र और राज्य सरकार के शीर्ष अधिकारियों को नोटिस जारी किया। न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति एएस चंदुरकर की पीठ ने केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के सचिव, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) के महानिदेशक, मध्य प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव और भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग के प्रमुख सचिव को जवाब देने के लिए तलब किया है। यह कार्रवाई उस अवमानना याचिका पर की गई है जिसमें आरोप लगाया गया है कि 2012 में दिए गए न्यायालय के निर्देशों का पालन नहीं किया गया।

साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए थे अहम निर्देश

दरअसल, 9 अगस्त 2012 को सुप्रीम कोर्ट ने ‘भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन बनाम भारत संघ’ मामले में कई अहम निर्देश जारी किए थे। इनमें पीड़ितों के मेडिकल रिकॉर्ड का कम्प्यूटरीकरण और उन्हें समुचित मेडिकल देखभाल उपलब्ध कराना शामिल था। इस मामले की निगरानी और प्रशासनिक पर्यवेक्षण सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने इसे मध्य प्रदेश हाईकोर्ट, जबलपुर पीठ को ट्रांसफर कर दिया था। लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना है कि बीते 12 सालों में इन निर्देशों का सही तरीके से अनुपालन नहीं किया गया।

प्रतिवादी अधिकारियों पर दंडात्मक कार्रवाई नहीं

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, अवमानना याचिका में कहा गया है कि 2015 में हाईकोर्ट में अवमानना याचिका दाखिल की गई थी, लेकिन पिछले दस सालों में प्रतिवादी अधिकारियों के खिलाफ किसी प्रकार की दंडात्मक कार्रवाई शुरू नहीं की गई। यह बात उस निगरानी समिति की रिपोर्ट में सामने आई, जिसे साल 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने और साल 2013 में हाईकोर्ट ने पुनर्गठित किया। अब उसी निगरानी समिति ने साल 2021 तक रिपोर्ट पेश की हैं। इन रिपोर्टों में बार-बार खामियों और लापरवाहियों की ओर इशारा किया गया है, लेकिन सरकारी मशीनरी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया।

रिपोर्टों में बताया गया कि भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर से कई डॉक्टर और संकाय सदस्य नौकरी छोड़ चुके हैं, टीकाकरण कार्यक्रम अधूरे हैं और मरीजों को अपेक्षित सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। रिक्त पदों और डॉक्टरों की भर्ती जैसे मुद्दों पर भी बार-बार अदालत ने चेतावनी दी, लेकिन ठोस कदम नहीं उठाए गए। 2017 में हाईकोर्ट ने यहां तक कहा था कि केंद्र सरकार जानबूझकर मामले को लंबा खींच रही है।

सरकार के दावे पर निगरानी समिति ने फेरा पानी

जहां तक मेडिकल रिकॉर्ड के कम्प्यूटरीकरण का सवाल है, सरकार का दावा है कि यह कार्य पूरा हो चुका है। लेकिन निगरानी समिति का कहना है कि यह सिस्टम मरीजों की वास्तविक जरूरतों के अनुरूप नहीं है। यह मरीजों की केस हिस्ट्री या इलाज की निरंतरता को सही तरीके से उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं है। बीते दिनों 6 जनवरी 2025 को भी हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के "उदासीन रवैये" की आलोचना की थी और स्पष्ट कहा था कि प्रतिवादी अधिकारी अपने काम को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। अब इस मामले की अगली सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में 14 नवंबर को होगी।

जानिए भोपाल गैस त्रासदी का पूरा मामला

भोपाल गैस त्रासदी 2-3 दिसंबर 1984 की रात हुई थी, जब यूनियन कार्बाइड कारखाने से मिथाइल आइसोसायनेट गैस का रिसाव हुआ। इस हादसे में हजारों लोगों की तत्काल मौत हो गई थी और लाखों लोग गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे। यह दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदियों में गिनी जाती है।

त्रासदी के बाद से ही पीड़ितों के पुनर्वास, चिकित्सा सुविधा, मुआवजा और स्वास्थ्य संबंधी अधिकारों को लेकर लगातार कानूनी लड़ाई जारी है। पीड़ित संगठनों का आरोप है कि चार दशक बीत जाने के बावजूद पीड़ितों को न तो पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं मिल पाई हैं और न ही मेडिकल डेटा का प्रभावी प्रबंधन हुआ है। सुप्रीम कोर्ट का यह नोटिस इसी लंबे संघर्ष की एक और कड़ी है, जिसका मकसद यह सुनिश्चित करना है कि प्रभावितों को न्याय और स्वास्थ्य सुविधा वास्तव में मिल सके।